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अनुशिष्टि महाधिकार न वेत्ति नवमे किचिद्दशमे मुच्यत सुभिः । संकल्पतस्ततो वेगास्तीवा मंदा भवति वा ॥२८॥ ज्येष्ठे सूर्यः सित पक्षे मध्याह्न विमलेऽम्बरे । मरं बहति नो तर्धमानो यथा स्मरः ।।६२६॥ विवसे प्लोषत सूर्यो मनोवासो दिवा निशम् । अस्ति प्रच्छादनं सूर्ये मनोवासिनि नो पुनः ॥६३०।। वह्निविध्याप्यते नोरमन्मथो न कदाचन । प्रप्लोषत बहिर्वह्निर्बहिरन्तश्च मन्मथः ॥६३१॥ बंधु जाति फुलं धर्म संवासं मदनातुरः । अवमन्य नरः सर्वं कुरुते कर्म निदितम् ।।९३२।। पिशाचेनेव कामेन व्याकुलीकृतमानसः । हिताहित न जानाति निविवेकीकृतोऽधमः ॥६३३॥
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वेग आकर रुक जाते हैं, गुरुजनोंसे शिक्षाको प्राप्त कर वह कामी सँभल भो जाता है ॥९२८॥
जेष्ठका मास हो, शुक्ल पक्ष हो, मध्याह्नका समय हो तथा आकाश मेघ रहित हो, उस समयका सूर्य भी मानव को वैसा संतापकारी नहीं होता है जैसा बढ़ता हुआ काम संतापकारी होता है ।।९२९।। सूर्य तो दिन में ही सुखाता है किन्तु काम रात-दिन सुखाता है-कष्ट देता है। सूर्य के संतापका प्रच्छादन तो है (छाता वगैरह) किन्तु कामके संतापका प्रच्छादन नहीं है ॥६३०॥
___ अग्निको जलद्वारा बुझाया जाता है किन्तु कामाग्नि किसी के द्वारा नहीं बुझतो। अग्नि तो बाहर हो अर्थात् शरीरको ही जलाती है किन्तु कामाग्नि अंदर और बाहर आत्मा और शरीर दोनोंको जलाती है ।।९३१|| कामी पूरुष अपने बंधुजन जाति, कुल, धर्म और संवास इन सबका तिरस्कार करके निंद्य कर्मको करता है ।।६३२।।
पिशाचके समान कामद्वारा व्याकुल कर दिया है मानस जिसका ऐसा तथा जिसको विवेक रहित कर दिया है ऐसा अधम कामासक्त पुरुष हित और अहितको नहीं