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________________ २७० ] मरण कण्डिका नोपकारं कुलीनोऽपि कृतघ्न इष मन्यते । लज्जालुरपि निर्लज्जो जायते मदनातुरः ॥६३४॥ स्त नो या जागरूकेभ्यः संयत भ्यः प्रकुप्यति । हितोपदेशिनं कामी द्विषन्तमिव पश्यति ॥३॥ सूर्योपाध्यायसंघानां जायत प्रतिकूलिकः । धार्मिकत्वं परित्यज्य प्रेर्यमाणो मनोभुवा ॥३६॥ महात्म्यं भुवनस्याति श्रुतलाभं च मुचप्ति । सतृणायज्ञया सारं मोहाच्छादित चेतनः ॥६३७॥ जोणं तृणमिथ मुख्यं चतुरंग बिमचतः । नाकृत्यं विद्यते किंधिभिवृक्षोविषयामिषम् ॥३८॥ गृह्णात्यवर्णवावं यः पूज्यानां परमेष्ठिनाम् । अकृत्यं कुर्वतस्तस्य मर्यादा कामिनः कुतः । ६३६॥ जान पाता है ।।६३३॥ कामी कुलोन होनेपर भी कृतघ्नी पुरुष के समान अपने उपकारी का उपकार नहीं मानता तथा लज्जायुक्त होनेपर भी कामसे निर्लज्ज हो जाता है ।।६३४।। . जसे चोर जागनेवाले व्यक्ति पर कुपित होता है वैसे कामी पुरुष संयमी मुनिजनोंपर कुपित होता है । अपने लिये हितकर बात कहने वाले को यह कामी शत्रके समान देखता है ।।६३५।। कामसे प्रेरित हुआ पुरुष-[मुनि] धार्मिकपनेको [व्रताचरण आदिको] छोड़कर आचार्य उपाध्याय और संघके प्रतिकूल हो जाता है ।।९३६॥ मोहसे आच्छादित हो गयी है चेतना जिसको ऐसा कामी अपना माहात्म्य लोक प्रसिद्धि और सारभूत श्रुतलाभ-शास्त्रज्ञान इन सबकी तृणके समान अवज्ञा करके इन्हें छोड़ देता है ॥९३७।। सम्यक्त्व आराधना आदि चार आराधना जो कि मोक्ष मार्गमें प्रमुख है, उसको भी जीर्ण तृणके समान कामो छोड़ देता है, ठीक है, विषयामिषको चाहनेवाले के लिये कुछ भी अकृत्य नहीं रहता अर्थात् वह नहीं करने योग्य कार्यको करता हो है
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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