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________________ ५२० ] मरणकण्डिका बाचना प्रच्छनाम्नायानुप्रेक्षाधर्मदेशनाः । भवत्यालबनं सापोर्धय॑ध्यानं चिकीर्षतः ॥१७६५।। पंचास्तिकायषटकाय कालद्रव्याणि यत्नतः । प्राज्ञाग्राह्याणि दक्षेण विचार्याणि जिनाज्ञया ॥१७९६॥ ध्यान होता है ऐसा जानना चाहिये । अथवा मार्दव आदि भावोंसे युक्त व्यक्तिके हो । धर्म्यध्यान संभव है । मार्दव आदि गुणोंको देखकर धबध्यानको जान सकते हैं। धम्यंध्यान और मार्दवादि गुण इनमें कार्यकारण भाव या लक्ष्य लक्षणभाव पाया जाता है । मार्दवादि भाव कारण है धर्म्यध्यान कार्य तथा मार्दवादि लक्षण है और धर्म्यध्यान लक्ष्य है। धर्म्यध्यान के आलंबनजो साधु धर्म्यध्यानको करना चाहता है उसके लिये बाचना, पृच्छना, आम्नाय, अनुप्रेक्षा और धर्मोपदेश ये पांच प्रकारके स्वाध्याय आलंधन होते हैं अर्थात् इन स्वाध्याय रूप तपों द्वारा धर्म्यध्यानको सिद्धि संभव है ।।१७६५।। विशेषार्थ-धर्म्यध्यानका ध्येय जीवादि समोचीन रूप सात तत्त्व छह द्रव्य आदि हैं इन तत्वोंका बोध वाचना आदि स्वाध्यायके माध्यमसे होता है जब तक सर्वज्ञ कथित और आचार्य रचित ग्रंथोंका वाचना, पुच्छना प्रादि रूप स्वाध्याय नहीं करेंगे तब तक ध्येय वस्तुका निर्णय नहीं हो सकता और उसके बिना ध्येय वस्तुपर मनका एकाग्र होना रूप ध्यान नहीं हो सकता। योग्य पात्रके लिये सिद्धांत आदि ग्रंथ पढ़ाना वाचना है । प्रागम कथित विषय में शंका होनेपर ज्ञानोसे प्रश्न करना पृच्छना है अथवा अपने द्वारा ज्ञात तत्त्वकी धारणा दृढ रहे इसके लिये प्रश्न-चर्चा करना पृच्छना स्वाध्याय है । सूत्र आदि कंठस्थ करने के लिये पुनः पुनः शुद्ध घोष करना प्राम्नाय है तथा तत्वार्थका चिंतन अनुप्रेक्षा है । भव्योंको धर्मका उपदेश देना धर्मोपदेश नामका स्वाध्याय है। आज्ञाबिच यधम्यध्यान का स्वरूप-- जो जिनेन्द्रको प्राज्ञा द्वारा ग्राह्य हैं ऐसे पांच अस्तिकाय छह द्रव्य, षट्काय जीव समूहका जिनाज्ञाके अनुसार दक्ष पुरुष द्वारा विचार किया जाना प्राज्ञा विषय धर्म्यध्यान है ।।१७६६।।
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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