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ध्यानादि अधिकार
माईवाजवनः संग्यहेयोपादेय पाटवं । मेयं प्रवर्तमानस्य धम्यंध्यानस्य लक्षणं ।।१५६४॥
जिनदेवकी आज्ञाका विचार करना, उनमें दृढ़ निश्चय करना, तत्व में बार बार मनको केन्द्रित करना, आज्ञाविचय धर्म्यध्यान है। अथवा स्वयंने तत्त्वोंका बोध भलीप्रकार प्राप्त किया है, उस तत्त्व बोधको अन्य मुमुक्षको प्राप्त कराऊं जिनेन्द्र देवकी आज्ञाका मैं प्रसार करू' । अमुक तकं आदि द्वारा जैनधर्मका उद्योत करूं । इस प्रकार तत्त्वोंका प्रतिपादन करने के लिये बार बार उपयोगको लगाना आज्ञाविचय है ।
मिथ्यादृष्टि जीव सर्वज्ञ प्रणीत मोक्षमार्ग से विमुख हो रहे हैं। जैसे जन्मांध पुरुष सन्मार्गसे दूर अति दूर रहते हैं क्योंकि उन्हें उक्त मार्ग दिखायी नहीं देता, उस प्रकार मिथ्यादृष्टिको मोक्षमार्ग दिखायो नहीं देता। ये बिचारे वास्तविक तत्त्वको नहीं समझ पा रहे हैं । इसप्रकार विचार करना अपायविचय घHध्यान है। अथवा इन अज्ञानी प्राणियोंका अज्ञान एवं मिथ्यात्व कैसे नष्ट हो, इसप्रकार विचार करना अपाय विचय ध्यान है । ज्ञानाबरण आदि कर्म प्रकृतियोंके उदयका विचार करना, किस कर्म का क्या फल है किस द्रव्य क्षेत्रादिसे कौनसा कर्मफल देने के सन्मुख होता है। कर्मों की बंध, उदय, सत्त्व संक्रमण आदि अवस्थायें इन सबका विचार करना, विणक विषय धबध्यान कहलाता है और तीन लोकके आकार, नरक स्वर्ग प्रादिके स्थान प्रमाण स्वभाव आदिका पुनः पुनः चिंतन संस्थान विचय धय॑ध्यान कहलाता है।
धर्म्यध्यान का लक्षण (चिह्न) - मार्दव, प्रार्जव, निःसंगपना और हेयोपादेय तत्त्वको समझने समझानेमे पता होना यह सब धर्म्यध्यान में प्रवृत्त हुए व्यक्तिके लक्षण हैं अथवा धर्म्यध्यानके लक्षण हैं ।।१७६४॥
विशेषार्थ.-..-जाति कुल रूप आदिका मान नहीं होना मादय भाव है। कुटिलताका प्रभाव पार्जव है । परिग्रहमें ममत्वका अभाव निःसंगता है। हेय सत्त्व आस्रवादि और उपादेय तत्त्व आत्मा, संवर, निर्जरा आदि हैं, इन तत्त्वोंको जाननेकी एवं परको प्रतिपादन करने की योग्यता अर्थात् धर्मोपदेश में प्रवीणताका होना ये सब धय॑ध्यानके लक्षण-चिह्न विशेष हैं । जिस पुरुषमें मार्दवादि भाव हैं उस पुरुषकै धम्यं