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मरणकण्डिका प्रत्याहृत्य मनोऽक्षाणि विषयेभ्यो महाबलः । प्रणिधानं विधत्तेसावात्मनि ध्यानलालसः ।।१७६२।। ध्यायत्येकानचेतस्को धर्म्यध्यानं चतुर्विधम् । प्राज्ञापायविपाकानां संस्थाया विचयं सुधीः ।।१७६३॥
महाबलशाली मुनि मन और इन्द्रियोंको विषयोंसे हटाकर आत्मामें एकाग्र करता है, कैसे हैं मुनिराज ? ध्यानकी प्राप्ति में लगा है मन जिनका ऐसे हैं ॥१७९२।।
विशेषार्थ-इन्द्रिय और मनको तद तद् विषयोंसे हटानेके लिये पवित्र एकान्त स्थानमें ध्यान करने की आज्ञा आगममें है । ध्यानके इच्छुक मुनिजन गिरिकंदरा, नदीतट, वन आदि निर्जन स्थानोंमें प्रासुक भूमि या शिलातल पर पद्मासन या खड्मासन से स्थित होते हैं। श्वासोच्छ्वासको मंद मंद करते हुए नाभिके ऊपरले भागके अवयव नासिका, ललाट, भ्र मध्य, हृदय आदिमें मनोवृत्तिको केन्द्रित करके नेत्रोंको टिमकार रहित नासिकामें स्थिर करते हैं । इसप्रकार शरीरको प्रतिमावत् सर्वथा स्थिर करके किसी सूत्रार्थ में या जीवादि तत्वों में या निजात्मामें मनःप्रणिधान लगाते हैं । यह ध्यान को प्राप्त करनेको विधि है।
धम्यंध्यानके भेदएकाग्रचित्तवाला बुद्धिमान मुनिराज आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थान विचय इसप्रकार चार प्रकारके धर्म्यध्यानोंको ध्याता है ।।१७६३।।
विशेषार्थ-यहाँपर चार प्रकारके धर्म्यध्यानोंका वर्णन करते हैं-जीवादि सात तत्त्व या जीव पुद्गल आदि छह द्रव्योंके जानने में सूक्ष्मपने के कारण शंका होनेपर मुमुक्षज़न विचार करते हैं कि अहो ! इस वक्त केवली श्रुतकेवलो आदि उपदेशकोंका अभाव है, मेरो बुद्धि भी मंद है, ज्ञानावरणका उदय होनेसे मैं वस्तुको सूक्ष्मताको समझ नहीं पा रहा । जिनेन्द्र प्रणोत तत्त्व अत्यंत गहन है, नय निक्षेपकी योजना करने में चतर ऐसे पुरुषोंका भी इस सपय सद्भाव नहीं है अब तो जो सर्वज्ञ देवने प्रतिपादन किया है, जैसा कहा है वही मुझे प्रमाणभूत है, उनकी आज्ञा मुझे शिरोधार्य है। जिनेन्द्र अन्यथावादो-विपरीत प्रतिपादक नहीं होते, मुझे ऐसा दृढ़ विश्वास है । इसतरह