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ध्यानादिअधिकार
रौद्रमात्तं त्रिधा त्यक्त्वा सुगति प्रतिबंधकम् । धम्यंशुक्लद्वये योगो साम्यं कर्तुं प्रवर्तते ॥१७८६।। ध्याने प्रवर्तते कांक्षन्कषायाक्षनिरोधनम् । वश्यत्वं मनसो मार्गावभ्रंशंनिर्जरां पराम् ।।१७६०।। एकामानार्थायर्त्य परवस्तुतः । आत्मनि स्मृतिमाधाय ध्यानं श्रयति मुक्तये ॥१७६१।।
नामका आतध्यान होता है। पीड़ा वेदना परीषहके आनेपर यह कैसे दूर हो इसप्रकार चितन पोड़ा चितन नामका आत्तध्यान है । आगामी काल में भोग प्राप्तिका विचार निदान नामका आत्तंध्यान है ।।१७८८।।
सगतिको रोकनेवाले आर्तध्यान और रौद्रध्यानको मन, वचन और कायसे छोड़कर योगोजन समताभावको करने के लिये धर्म्यध्यान और शुक्ल ध्यान में प्रवृत्त होते हैं ।। १७८६।।
कषाय और इन्द्रियोंको रोकनेके लिये, मनको वशमें करनेकी इच्छासे, मोक्षमार्गसे च्युत न होने के लिये तथा उत्कृष्ट निर्जराको करने के लिये योगीजन धय॑ध्यान और शुक्लध्यान में प्रवृत्त होते हैं अर्थात् जो कषाय और इन्द्रियको रोकना चाहता है मोक्षमार्गमें सदा प्रवृत्ति चाहता है उसको ये प्रशस्त ध्यान करने चाहिये ॥१७६०॥
ध्यानका परिकर
नेत्रोंको परवस्तुसे हटाकर मनको एकाग्न करके अपनो आत्मामें स्मृति-विचार को लगाके मुनि मुक्ति प्राप्ति के लिये ध्यानका आश्रय लेते हैं ।।१७६१
भावार्थ-दृष्टि इधर उधर जाती रहे तो मन चंचल हो उठता है अतः सर्व प्रथम नेत्रको अपने नाकके अग्र भाग पर स्थिर करना चाहिये पुन: मनको एकाग्न करना चाहिये । श्रुतज्ञान की सहायतासे आगम कथित पदार्थोंका स्मरण करते हए आत्मा में स्थिरता होना ध्यान है ।