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मरणकण्डिका प्रार्तरोखवयं त्याज्यं सर्ववा दुःखदायकम् । तेन विश्वस्यते ध्यानं दुर्नयेनेव सन्नयः ॥१७८५॥ रौद्र चतषिधं ध्यानं ये चासें संति केचन । से मेवा दूरतस्त्याच्या विज्ञाय विषिवेदिना ॥१७८६॥ स्तेयासत्यवचोरक्षापड़िवधारंभभेदतः । कषायसहितं रौन ध्यानं ज्ञेयं समासतः ॥१७८७॥ प्रियायोगाप्रियप्राप्सिपरीषहनिदानतः । कषायफलितं ध्यानमातं प्रोक्तं चतुर्विधम् ।।१७८८॥
ध्यजीवोंको हमेणा हो दुखदायक वार्तध्यान और रौद्रध्यान छोड़ देना चाहिये क्योंकि इन अप्रशस्त ध्यानोंसे घम्यंध्यानादि प्रशस्तध्यान नष्ट होते हैं जैसे कि कुनयसे सुनय नष्ट होता है ।।१७८५।।
ध्यानकी विधिको जानने वाले पुरुष द्वारा चार प्रकारके रौद्रध्यान और आर्तध्यान में जो भेद हैं उन खोटे ध्यानोंको जानकर दूर से ही छोड़ देना चाहिये । आचार्य महाराज क्षपकको समझा रहे हैं कि हे क्षपक ! तुम कभी भी रोद्रध्यान और आतध्यानको नहीं करना ये सब कुगतिके कारण हैं ।।१७८६।।
रौद्र ध्यानके चार भेदकषाय सहित ध्यान रोद्रध्यान है, संक्षेपसे यह लक्षण है। चोरीका विचार, असत्यभाषणका चितन, परिग्रहकी रक्षामें लगन और षट्काय जीवों के आरंभ में तत्परता, | इसतरह सैद्रध्यानके धार भेद होते हैं अर्थात् हिंसामें हर्षभाव होना-हिसानंदी रौद्रध्यान कहलाता है । असत्य भाषणमें आनंद मानना अनन्तानंदो रौद्रध्यान है। चोरीमें आनंद आना चौर्यानंदी रोद्रध्यान है और परिग्रह रक्षामें आनंद मानना परिग्रहानंदी रौद्रध्यान है ।।१७८७।।
आर्तध्यानके चार भेदआर्तध्यान भी कषाय भावयुक्त है इसके चार भेद हैं, प्रिय वस्तुके वियोगमें इष्ट वियोग नामका आतंध्यान होता है । अप्रिय वस्तुके संयोग होनेपर प्रनिष्ट संयोग