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ध्यानादि अधिकार
धम्यं चतुर्विधं ध्यात्वा संसारासुखभोरुकः । शुक्ल चतुअथ ध्यान ध्यातुं प्रक्रमते यतिः ॥१७६४।।
जो संसारके दुःखोंसे भयभीत है वह यति पहले चार प्रकारके धम्यंध्यानोंको करके पुनः चार प्रकारोंके शुक्ल ध्यानोंको करने के लिये प्रवृत्त होता है ।।१७०४।।
विशेषार्थ-एक पदार्थमें मनका स्थिर होना ध्यान है । प्रशस्त ध्यानके दो भेद हैं घHध्यान और शुक्लध्यान । धर्म्य ध्यानके चार भेद हैं-आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय । शुक्लध्यानके भी चार भेद हैं-पृथक्त्व वितकं बोचार, एकत्व वितर्क अवीचार, मूक्ष्मक्रिया प्रतिपाति और व्यूपरतक्रिया निवति । इन सभी का विशेष स्वरूप आगे क्रमश: कहेंगे । यहां सामान्य रूपसे कहते हैं । धय॑ध्यानका सामान्य लक्षण-उत्तम क्षमा आदि धर्मात् अनपेतं धर्म्यम् । अथवा वस्तुस्वभावको धर्म कहते हैं उस धर्मसे जो अनेपत अर्थात् सहित हो-वस्तु स्वभावका जिसमें चिंतन हो वह धर्म्यध्यान कहलाता है ।
अत्यंत शुचि-पवित्र-शुद्ध परिणाम से जो हो वह शुक्लध्यान है। इसमें संयम को शुचिता नियमसे होतो है अर्थात् यह संयमीके ही होता है । घHध्यान तथा शुक्लध्यान मोक्षके हेतु हैं । वर्तमान पंचम कालमें शुक्लध्यान नहीं होता, धय॑ध्यान होता है।