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सल्लेखनादि अधिकार
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साथुः सल्लेखनां कत्तु मित्थं भाषितमानसः । तपसा यतते सम्यक् बाह्य नाभ्यंतरेण च ॥२१०॥ सल्लेखना द्विधा साधोरन्तरानन्तरेष्यते । तनांतरा कषायस्था द्वितीया कायगोचरा ॥२११॥ अभक्तिरवमोवयं वृत्तिसंख्या रसोभनम् । कायक्लेशो विविक्ता च शय्या षोढा बहिस्तपः ॥२१२।।
इसप्रकार तप आदि भावमा से वासित है मन जिसका ऐसा साधु सल्लेखना को करने के लिये बाह्य और अभ्यन्तर सम्यक तपोंमें प्रयत्नशील होता है ।।२१०॥
साधुके सल्लेखना दो प्रकार हुआ करती है अभ्यन्तर और बाह्म, इनमें कषाय सम्बन्धी अभ्यन्तर सल्लेखना है और शरीर सम्बन्धी बाह्य सल्लेखना है । कषायों को आत्म भावना द्वारा कम करना कषाय सल्लेखना कहलाती है और शरीर को अनशनादि तप द्वारा कम करना काय सल्लेखना कही जाती है ॥२११॥
बाह्य तप छह प्रकार का है-अनशन, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रस त्याग, कायक्लेश और विविक्त शय्यासन ।।२१२।। आगे इसका स्वरूप बता रहे हैं।