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सल्लेबनादि अधिकार
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सार्यकालिकमन्यच्च धानशनमोरितम् । प्रथमं मृत्युकालेऽन्यद्वर्तमानस्य - कथ्यते ॥१३॥ एक द्वित्रि चतुः पंच षट् सप्ताष्टनवादयः । उपवासाः जिनस्तत्र षण्मासावधयो मताः ॥२१४॥ बहुदोषाकरे ग्रामे प्रवेशो विनिवारितः । संयमो वद्धितः पूतः कुर्वतानशनं तपः ॥२१५॥ आहारस्तृप्तये पुसा द्वात्रिशकवला जिनः । प्रष्टाविंशतिरादिष्टा योषितः प्रकृतिस्थितः ॥२१६॥
अनशन नामके तपके दो भेद हैं सार्वकालिक और असार्वकालिक । सार्वकालिक समाधिमरण के काल में होता है और असार्वकालिक इसके पहले होता है । जो यावज्जीव के लिये आहार का त्याग करता है उसको सार्वकालिक अनशन कहते हैं और जो दो चार दस आदि दिनों की मर्यादा लेकर किया जाता है वह असार्वकालिक अनशन है ।।२१३॥
असावकालिक उपवास अर्थात् दिनों की मर्यादा लेकर किये जानेवाले अनशन तपका वर्णन करते हैं-एक, दो, तीन, चार, पांच, छह, सात, आठ, नौ इत्यादि उपवास करना असार्वकालिक अनशन तप है इन उपवासों को लगातार करने की अंतिम अवधि-मर्यादा छह मासको है ऐसा जिनेन्द्र भगवान ने कहा है अर्थात् एक उपवास से लेकर दो तीन आदि छह मास तक करना असार्वकालिक उपवास कहलाता है ॥२१४।।
इस अनशन तपको करने से पवित्र संयम वद्धिंगत होता है, तथा बहुत दोषों का आकर ऐसे ग्राम में प्रवेश रुक जाता है । अर्थात् उपवास करने से आहारार्थ ग्राममें जाना पड़ता था वह रुक जाता है, ग्रमादि में जाने से विविध दृश्य विविध जन सम्पर्क होता है उससे अनेक संकल्प विकल्पोंको उत्पत्ति होती है, कषाय वृद्धि के कारण भी मिलते हैं जैसे कोई दुष्ट गाली आदि देने लगता है अथवा राग की वृद्धि करने वाली मनोहर वस्तु देखने में आती है यदि उपवास है तो उक्त दोषों से भरे ग्राम में नहीं जाना पड़ता है और उससे सहज कषायभाव रागद्वेषभाव आदि दोष रोक दिये जाते हैं ॥२१५।।
___ अवमौदर्य तप-पुरुषका स्वाभाविक भोजन बत्तीस ग्रास प्रमाण है और स्त्रियोंका अट्ठावीस ग्रास प्रमाण है ऐसा जिनदेव ने कहा है । इतने आहार से तृप्ति