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________________ ५३२ ] मरणकण्डिका स्वकीया देहिनोऽनव देहार्थस्वजनादयः । स्वीकृताः संभ्रमेणापि न कदाचिद्भवान्तरे ॥१८३६॥ स्वकीयं परकीयं न विद्यते भुवनत्रये । नकस्याटायमानस्य परमाणोरिवाशिनः ॥१८३७।। भातरं समं गत्वा धर्मो रत्नत्रयात्मकः । उपकारं परं नित्यं पितेय कुरुतेऽङ्गिनः ।।१८३८॥ भोगं रोगं धनं शल्यं गेहं गुप्तिः स्त्रियो यथा । बंधु च मन्यते बंध साधरेफत्ववासितः ॥१८३६।। से धन परिवार आदिको भवान्तरमें साथ ले जाना चाहें तो भी मरनेवाला पुरुष उनको नहीं ले जा सकता। इसप्रकार एकत्व भावनामें विचार करना चाहिये ।।१८३६॥ जैसे परमाणु अन्य परमाण या स्कंध आदिके संबंध बिना तीन लोक में सर्वत्र अकेला घूमता है वैसे तीन लोकमें एकाकी परिभ्रमण करते हुए इस जीवके कोई नहीं है न अपना है और न पराया है ।।१८३७॥ इसप्रकार धन, परिवार आदि परलोकमें साथ नहीं जाते ऐसा समीचीन सिद्धांत कहकर अब प्रागे कहते हैं कि परलोकमें धर्म साथ जाता है सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र रूप धर्म इस जोवके साथ परलोक में जाता है । यह रत्नत्रय धर्म पिताके समान इस जीव का नित्य ही उत्कृष्ट उपकार करता है ॥१८३८॥ विशेषार्थ-सम्यग्दर्शन आदि धर्म आत्माका निजी धर्म है, आत्मासे अभिन्न है, अनादिकालसे मिथ्यात्व आदि द्वारा यह धर्म ढक रहा है, मिथ्यात्व आदिके हटने पर प्रगट होता है । यह धर्म दुर्गति में जाते हुए जीवको रोककर उत्तम इन्द्र आदि पदमें स्थापित करता है, यह परलोक में कल्याणकारक मित्र है क्योंकि परलोक में साथ जाकर अभ्युदय आदि सुख को देता है । इसप्रकार रत्नत्रय धर्मको छोड़कर अन्य कोई भी इस जीवका नहीं है ऐसा एकत्व भावनामें विचार करना चाहिये । जो साधु सदा एकत्व भावनाको भाता है वह भोगको रोमके समान दुःखदायी मानता है, धनको शल्यवत् कष्टप्रद समझता है, घर और स्त्रियों को कारागृहके समान
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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