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ध्यानादि अधिकार
बंधस्य बंधनेनेव रागो यस्य न विग्रहे । स करोत्यावरं साधुः किमर्थेऽनर्थकारिणि ।।१८४०॥
छेद-अनुकूलाबंधनतुल्यं चरणसहायं पश्यति गात्रं मथितकषायः । यो मुनिवर्यो जनधनसंगे तस्य न रागःकृतहितभंगे ।।१८४१।।
॥ इति एकत्वम् ॥ दुःखव्याकुलितं दृष्ट्वा किमन्योऽन्येन शोच्यते । कि नात्मा शोच्यते जन्ममृत्युदुःखपुरस्कृतः ॥१८४२।।
और बंधुको बंधनरूप मानता है अर्थात भोग आदिमें ममत्व प्रेम नहीं करता है ॥१८३६।।
जैसे सांकल आदिसे बंधे हुए पुरुषके उस सांकल आदिमें प्रीति नहीं होती वैसे जिसकी शरीरमें हो राग-प्रीति नहीं है वह साधु अनर्थको करनेवाले धनमें क्या आदर कर सकता है ? कभी नहीं कर सकता ।।१८४०॥ जिन्होंने कषायोंका मथन किया है वे मुनिजन शरीरको बंधन तुल्य देखते हैं अर्थात् शरीरको बंधनरूप मानते हैं । शरीरको तो केवल चारित्र पालनमें सहायो मानते हैं। इसप्रकार जिनका स्वशरीरमें ही राग नहीं रहता उनके हितका नाश करनेवाले, परिवार, धन और परिग्रहमें क्या राग हो सकता है ? नहीं हो सकता । इसप्रकार अपने को सदा एकाको मानना एकत्व भावना है ।।१८४१।।
एकत्व भावना समाप्त ।
अन्यत्व भावना
अहो ! बड़ा आश्चर्य है कि इस संसार में मोहो प्राणी एक दूसरेको दुःखसे पाकुलित देखकर शोक क्यों करता है ? स्वयंका आत्मा जन्म, मृत्युके दुःखोंसे युक्त हो रहा है, उसका शोक क्यों नहीं करता ? अर्थात् दूसरा दुःखो हो रहा है उसका शोक तो करते हैं किन्तु खुद नरकादिके दुःख पा रहा है उसका शोक नहीं करता ।।१८४२।। अनंत संसार में कर्म द्वारा परिभ्र पण करते हुए जीवोंका कौन किसका अपना हुआ है ? कोई