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मरणकण्डिका
संसारे भ्रममाणानामनसे कर्मणाङ्गिनः । कः कस्यास्ति निजो मूढः सज्जतेऽत्र जने जने ॥१८४३॥ कालेऽतीतेऽभवत्सर्व सर्वस्यापि निजो जनः । तथा कर्मानुभावेन भविष्यति भविष्यति ॥१८४४॥ संगमोऽस्ति शकताना रात्री रात्री तरोतरौ। यथा तथा तनभाजां जातो जातो भवे भवे ॥१८४५॥ अध्वनीना इकत्र प्राप्य संग ततोऽगिनः । स्थानं निजं निजं यान्ति हित्वा कर्मयशीकृताः ॥१८४६॥
भी अपना नहीं हुआ है, यह मूर्ख व्यर्थ हो जन-जन में यह मेरा है, यह मेरा है ऐसा मानकर आसक्त होता है ।।१८४३।। अतीत काल में सर्व हो जीय सर्व जोवों के प्रात्मीयजन हो चुके हैं । कोई जीब शेष नहीं रहा जो अपना नहीं हुआ हो तथा कर्मके उदयसे आगामी काल में भी सर्व जीव सर्व जीवोंके आत्मीय जन बनेंगे ॥१८४४।। भाव यह है कि सर्व जीव अपने सगे बन चुके हैं किन्तु वे सब ही मेरेसे सदा पृथक हो रहे हैं और आगे भी पृथक ही रहेंगे अत: संसारके सर्व पदार्थ मेरेसे अन्य हैं ऐसा चिंतन करना चाहिये, जैसे रात्रि-रात्रिमें वृक्ष वृक्षपर पक्षियोंका समागम होता है वैसे संसारी जीवोंके जाति जाति में (योनिमें) भव भव में परिवारजनका समागम होता रहता है ।।१८४५।।
विशेषार्थ-जैसे प्रत्येक रात्रि में प्रत्येक वृक्षपर पक्षी आकर बैठते हैं। वैसे प्रत्येक जन्ममें प्राणियोंका समागम होता है, रात्रिमें पक्षी आश्रय बिना नहीं रह सकते अतः योग्य वृक्षका आश्रय लेते हैं । संसारो जोब भी आयुके नष्ट होनेपर पूर्व शरीरको छोड़कर अन्य शरीरके योग्य पुद्गलोंके योनि-स्थान में जाकर ग्रहण करते हैं। फिर वहाँ की आयु पूर्ण होनेपर अन्य योनिमें जन्मते हैं । जैसे पक्षियोंको वृक्ष सुलभ हैं वैसे जीवोंको योनियां सुलभ हैं । यह सब समागम कुछ ही समयका हुआ करता है अत: स्पष्ट है कि योनि, शरीर, परिवार आत्मासे अन्य है पृथक् है ।
जैसे पथिक जन एक धर्मशाला या वृक्षको छाया में एकत्रित होकर पुनः अपने अपने ग्रामादिमें चले आते हैं, उस वृक्षादिके निकट प्राप्त हुए समागम छोड़ देते हैं । धंसे कर्म के आधीन हुए प्राणीगण एक घर-नामादिमें समागमको प्राप्त करके पुन: उस