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________________ ध्यानादि अधिकार नानाप्रकृति के लोके कस्य कस्तत्त्वतः प्रियः । कार्यमुद्दिश्य संबंधो वालुकामुष्टिवज्जनः ॥ १८४७ ।। माता पोषयते पुत्रमाधारोऽयं भविष्यति । मातरं पोषयत्येष गर्भेऽहं विधृतोऽनया ।।१८४६ ।। श्रमित्रं जायते तनूजो आयते मित्रमुपकारविधानतः । शत्रुरपकारविधानतः ।। १८४६ ॥ विद्यते ततः । जायते कार्यमाश्रित्य शत्रुभित्रं विनिश्चितम् ।।१८५० ॥ [ ५३५ समागमको छोड़कर अपने-अपने कर्मानुसार प्राप्त हुई गतियों में चले जाते हैं ।। १८४६ ।। अहो इस विचित्र संसार में नाना स्वभाववाले लोक हैं किसी की प्रकृति किसोसे मिलती नहीं है, तत्त्व दृष्टि से देखा जाय तो किसको कौन प्रिय है ? कोई भी प्रिय नहीं है। किन्तु अपने कार्यका उद्देश्य लेकर ये लोक संबंध स्थापित कर लेते हैं । उनका वह संबंध तो बालुको मुट्ठी के समान है, जैसे बालुके कण पृथक् हैं जल आदिसे मिल जाते हैं संबंधको प्राप्त होते हैं किन्तु वह संबंध न स्वाभाविक है और न सदा रहने वाला है । वैसे पुत्र, मित्र या घनादिका संबंध न स्वाभाविक है और न सदा का है ।। १८४७ ।। इस विश्व में यह पुत्र मेरा आधार होगा, इस भावनासे माता पुत्रका पालन करती है और पुत्र इस माताने मुझको गर्भ में धारण किया था ऐसो भावनासे माताकी सेवा करता है, बुढापे में उसका पालन करता है ।। १८४८। पहले जो शत्रु था वह उपकार कर लेवे तो मित्र बन जाता है अर्थात् जो शत्रुभावको प्राप्त था वह यदि हमारा उपकार करने लगता है तो हम उसे मित्र मानने लग जाते हैं तथा स्वयंका पुत्र है किन्तु अपकार करनेसे शत्रु बन जाता है। अतः वास्तव में देखा जाय तो प्राणियों का कोई भी मित्र और कोई शत्रु नहीं है, केवल कार्य का आश्रय लेकर शत्रु और मित्र बन जाया करते हैं या उन्हें शत्रु और मित्र माना जाता है यह निश्चित समझो ।। १८४६ ।। १८५० ॥ भावार्थ — वास्तव में हमारा कोई मित्र या शत्रु नहीं है । जो हमारा उपकार करे या हम जिसपर उपकार करते हैं वह मित्र समझा जाता है और पात्रु भो वही है
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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