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मरकण्डिका
हितं करोति घो घस्य स मतस्तस्य बांधवः । स तस्य भव्यते बैरो यो यस्याहितकारकः ।।१८५१।। कुर्वन्ति बांधवा विघ्नं धर्मस्य शिवदायिनः । तीव्र दुःखकरं घोरं कारयन्त्यप्यसंयमम् ॥१८५२।। बंधुरं साधवो धर्मं वर्धयन्ति शरीरिणः । संसारकारणं निद्यं त्याजयन्त्यप्यसंयमम ॥। १८५३ ॥ साधवो बांधवास्तस्माद्देहिनः परमार्थतः । ज्ञातयः शत्रवो रौद्रभवाम्भोधिनिपाततः ||१८५४ ॥
जो हमारा अपकार - हानि घात करता हो या हम उसका अपकार करते हैं । जो आज मित्र है यह कल शत्रु बन जाता है और जो आज शत्रु है वह कल मित्र बन जाता है । सब स्वार्थ या कार्य यशता पर निर्भर है । अतः हे भव्य जीवों ! यह निश्चित समझो कि मेरे आत्मासे यह सब हो पृथक्-पृथक् हैं ।
जो जिसका हित करता है वह उसका बांधव माना जाता है और जो जिसका अहित करता है वह उसका बैरी समझा जाता है ।। १८५१।।
जो हमारे इष्ट बंधुजन हैं वे मोक्षको प्रदान करनेवाले रत्नत्रयधर्म में विघ्न बाधात्रोंको करते हैं अतः निश्चित समझना चाहिये कि वे हमारे लिये घोर अत्यंत तीव्र दुःखको कराते हैं । अतः वे बन्धु मित्र या प्रियजन ही हमारे वास्तविक शत्रु हैं । जिसे हम शत्रु मानते हैं वह वास्तविक शत्रु नहीं हैं। बंधुजनोंके मोह में हिंसा, असंयम आदिमें प्रवृत्ति होती है । बंधुजन मोक्षमार्ग में जाने से रोक देते हैं, त्याग तपस्याको रोकते हैं जिस कार्य से आत्माका हित होता है उस उस कार्यसे रोकने वाले बंधुजन हैं अतः वे ही शत्रु हैं। ऐसा जानकर सबसे अपनेको अन्य मानना चाहिये यही अन्यत्व भावना है। ।। १८५२।।
साधुजन संसारी जीवोंके महा मनोहर मोक्ष सुखके दाता ऐसे रत्नत्रयको सदा ही वृद्धिगत करते हैं तथा जो निद्य संसारका कारण है ऐसे मिथ्यात्व असंयम आदिका त्याग कराते हैं । इसमें कोई संशय नहीं । अतः मुनि हो परमार्थतः बंधुजन हैं । एक कुल एवं जाति में उत्पन्न परिवार जन वास्तव में शत्रू ही हैं, क्योंकि ये बन्धु परिवारजन महाभयंकर संसार रूपी सागरमें डुबाने वाले हैं ।। १६५३ ।। १६५४।।