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________________ Tসাকি ঘিাৰ [ ५३७ शरीरावात्मनोऽन्यत्वं निस्त्रिशस्येव कोशतः । परबत्तं (परतत्त्वं) न जानन्ति मोहान्तमसावृत्ताः॥१८५५॥ अनादिनिधनो ज्ञानी कर्ता भोक्ता च कर्मणाम् । सर्वेषां वेहिनां ज्ञेयो मतो वेहस्ततोऽन्यथा ॥१०५६॥ छेद-रथोद्धतापूर्वजन्मकृतकर्मनिमितं पुत्रमित्रधनबांधवादिकम् । न स्वकीयमखिलं शरीरिणो ज्ञानदर्शनमपास्य विद्यते ॥१८५७॥ ॥इति मन्यत्त्वं ।। जैसे म्यानसे तलवार पृथक होती है वैसे आत्मा शरीर से अन्य है किन्तु मोह. रूपी अंधकारसे ढ़क गये हैं ज्ञानरूपो नेत्र जिनके (अथवा जैसे अंध व्यक्तिके नेत्र अंधकारसे आवृत्त रहते हैं उनको सदा अंधकार ही प्रतीत होता है कुछ दिखता नहीं वैसे मोहसे अंधे हुए व्यक्तिके ज्ञानरूपी नेत्र सदा अंधकारसे आवृत्त रहते हैं) ऐसे पुरुष इस अन्यत्व रूप श्रेष्ठ सयको नहीं आते हैं ।।१५५ सभी संसारी प्राणियोंका आत्मा अनादि निधन है-शाश्वत रहनेवाला है, ज्ञानी है, कोका कर्ता और कर्मोंके फलोंका भोक्ता है तथा शरीर इससे सर्वथा अन्य प्रकार का है अर्थात् शरीर नाशवान् है. शाश्वत नहीं है, अज्ञानो है क्योंकि जड़ है कुछ नहीं जानता इत्यादि । इसप्रकार शरीर और आत्माका स्वरूप-लक्षण सर्वना भिन्न-भिन्न है ॥१८५६।। जोवोंका अपने ज्ञान, दर्शन, स्वभावको छोड़कर अन्य कोई भी स्वकोय नहीं है । पुत्र, मित्र, धन, बांधव आदि तो पूर्व जन्म में उपाजित किये हुए कर्मों द्वारा निर्मित हैं ।।१८५७॥ विशेषार्थ- अन्यत्व भावनामें मुनिजन विचार करते हैं कि मित्र, पुत्र, धन आदि साक्षात् मेरेसे पृथक् दिखाई देते हैं अतः ये सब मेरेसे मेरे प्रात्मासे सर्वथा अन्य हैं । मोही प्राणो इस बातको नहीं जानता अत: अपना और पराया ऐसा भेद करता है । वास्तवमें जो मोक्षमार्गमें लगाते हैं वे साधुजन अपने हैं। संसार समुद्र में डूबाने वाले मोक्ष मार्गसे रोकने वाले परिवार जन तो साक्षात् ही शत्रु हैं । इसप्रकार चिंतन करना अन्यत्व अनुप्रेक्षा है। अन्यत्व भावना समाप्त ।
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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