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________________ ५३८ ] मरणकण्डिका मिव्यारबमोहितस्वान्तो भवे भ्रमति दुर्गमे । मान हसारण प्रभारि भयंकरे ॥१८५८।। अनेकदुःखपानीये नानायोनिभ्रमाकुले । अनंतकायपाताले विचित्रगतिपत्तने ॥१८५६॥ रागद्वषमवक्रोधलोभ मोहादियादसि । अनेकजातिकल्लोले प्रसस्थावरबुबुदे १८६०॥ जीवपोतो भयांभोधी कर्मनाविकचोदितः । जन्ममृत्युजरावर्ते चिरं भ्राम्यति संततम् ॥१८६१॥ संसार अनुप्रेक्षाका वर्णन संसार रूपी दुर्गम वनमें मिथ्यात्वसे मोहित मनवाले ये जीव भ्रमण करते हैं, जैसे हाथी, लुटेरे आदि शत्रुसे युक्त ऐसे भयंकर अरण्य, मार्गको भूलकर पथिक उस बनमें इधर उधर भ्रमण करता है ।।१८५८।।। भावार्थ-यह जीव अनादि कालसे मिथ्यात्वके कारण चतुर्गति रूप संसार वन में परिभ्रमण कर रहा है । दर्शन मोहनीयकर्मकी मिथ्यात्व नामा प्रकृतिके उदयसे जीवादि पदार्थों पर श्रद्धा नहीं होना मिथ्यात्व परिणाम है । इस परिणामसे युक्त जीव मिथ्यादृष्टि कहालाता है । मिथ्यादृष्टि ही संसार भ्रमण करता है । सम्यक्त्व होनेके बाद अधिकसे अधिक अर्ध पुद्गल परिवर्तन काल तक ही भ्रमण करता है । अतः संसार वनमें भटकाने वाला मिथ्यात्व हो ऐसा जानना चाहिये । प्रागे संसारको समुद्रकी उपमा देकर वर्णन करते हैं जिसमें अनेक प्रकारका दुःखरूपी जल भरा हुआ है, नाना योनि चौरासी लाख योनि रूप भंवरोंसे व्याप्त और अनंतकाय साधारण वनस्पति रूप जिसमें पाताल प्रदेश हैं, विचित्र चार गतिरूप वेला पतन जिसके तट पर स्थित है, राग द्वेष, मद, क्रोध, लोभ और मोह आदि रूप भयंकर मगर मच्छादि जलचर जोवोंसे जो भरा है, एकेन्द्रिय आदि अनेक जातिरूप लहरें जिसमें उछल रही हैं, उस स्थावर जीव रूप बलबूले जिसमें उठ रहे हैं और जन्म, मरण, जरा, आवर्त जिस में हैं ऐसे संसार रूपी समुद्र में कर्मरूपी खेवटिया द्वारा चलाया गया यह जीव रूपी जहाज सतत चिरकाल तक भ्रमण कर रहा है ।।१८५६।।१८६०।।१८६१।।
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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