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________________ [ ५३१ ध्यानादि अधिकार करोति पातकं जन्तरवाषनदेनते ! श्वचाविषु पुमर्दु :खमेकाकी सहते चिरम् ॥१८३२॥ वेदनां कर्मणा वत्सां रोगशोकभयाविकां । कि भुजानस्य कुर्वन्तु पश्यन्त्यो ज्ञातयोऽङ्गिनः।१८३३।। एकाकी म्रिपते जीवो न द्वितीयोऽस्य कश्चन । सहाया भोगसेवायां न कर्मफलसेवने ॥१८३४।। हाथ बांधवाः साधं न केनापि भवांतरम् । वल्लभा अपि गच्छन्ति कुर्वन्तोऽपि महादरम् ॥१८३५॥ - -- - ....-. एकत्व भावना यह मोही जीव शरीर बंधुजन आदिके लिये पाप करता है किन्तु नरकादि खोटी गतियोंमें चिरकाल तक अकेला हो दुःखको भोगता है, वहां बंधुजन दुःख भोगने में साथी नहीं होते ।।१८३२।। यदि कोई प्रश्न करे कि नरकादि गति में बंधुजन उसकी वेदनाको देखते नहीं अतः सहायक या साथी कसे बनें । सो इस प्रश्नका उत्तर देते हैं पापकर्म द्वारा रोग, शोक, भय आदि रूप वेदना दी जानेपर उसको भोगते हुए मनुष्यको प्रत्यक्ष रूप परिवार-बंधुजन देख रहे हैं किन्तु उसका कुछ प्रतोकार आदि करते हैं क्या? नहीं करते हैं अर्थात् अपने आँखों के सामने पिता आदिको भयंकर वेदना या कष्ट आदि आनेपर भी परिवार कुछ नहीं कर सकता, वेदना उस व्यक्तिको हो भोगनी पड़ती है जिसने कि पूर्व में पापका उपार्जन किया था ॥१८३३॥ आयु पूर्ण होने पर यह जीव अकेला हो मरता है, इसका दूसरा कोई साथी नहीं होता । मनोहर वस्त्राभरण भोजनादि को भोगने में सहायक बहुत हैं किन्तु कर्मोंका फल भोगनेमें कोई सहायक नहीं है ॥१८३४।। शरीर, धन और बांधव किसीके भी साथ दूसरे भव में--परलोकमें नहीं जाते हैं, उस व्यक्तिका महान् आदर करते हुए अत्यंत प्रिय पुत्र-पत्नी आदि भी परलोक में साथ नहीं जाते ।।१८३५।। इन संसारी जीवोंके अपने शरीर, धन और स्वजन आदि यहीं पर इस लोकमें ही रह जाते हैं, अत्यंत उत्कंठा
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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