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भरणकण्डिका
बलकेशवचक्रेशदेवविद्याधरावयः । सन्ति फर्मोदये व्यक्त शरणं न शरीरिणाम् ॥१८२८॥ मच्छन्मुल्लंघते क्षोणी नरस्तरति नीरधिम् । नातिक्रांतु पुनः कोऽपि कर्मणामुदयं क्षमः ॥१८२६॥ मृगमोनो परौ जन्त्योः सिंहमीनगृहीतयोः । जायते रक्षकः कोऽपि कर्मग्रस्तस्य नो पुनः ॥१८३०॥
छंद-स्वागताकर्मनाशनसहानि जनानां सामवर्शनचरिषतपांसि । नापहाय सति कर्मणि पक्वे रक्षकानि खल संतिपराणि ॥१८३१॥
॥ इति प्रशारणम् ॥
निश्चय से हो जाता है ।।१८२७।। इन शरीर धारी जीवोंको कर्मोका तीव्र उदय आनेपर बलदेव, नारायण, चक्रवर्ती देव और विद्याधर आदि भी शरण नहीं होते हैं । यह स्पष्ट ही है ।।१५२८। यह मानव बड़े-बड़े पर्वत आदिसे विषम भूमिका उल्लंघन कर सकता, सागरको भूा द्वारा पार कर सकता है किन्तु ऐसा कोई भी संसारी जीव नहीं है जो उदयको प्राप्त कर्मोका उल्लंघन कर सके ॥१८२६।।
सिंहके द्वारा पकड़े हुए हिरणका कोई रक्षक हो सकता हैं, बड़ी मछली द्वारा पकड़े हुए छोटी मछलीका कोई रक्षक हो सकता है, किन्तु कर्म द्वारा पकड़े हुए-ग्रस्त हए जीवका कोई भी रक्षक नहीं है ।। १८३०।। इसप्रकार यहां तक कहे गये बंधु, मित्र, राजा, चक्रवर्ती, दुर्ग, पाताल आदि कोई भी शरण सहायी नहीं है ऐसा बताया। अब जो सहायक है, उसको आगेके श्लोक मे बतलाते हैं
भव्य जीवों के लिये यदि कोई शरणभूत हैं तो वह अपने-अपने ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप हो हैं । ये ही ज्ञानादिक उन दुःखदायी कर्मोका नाश करने में समर्थ हैं। इन ज्ञानादि चार आराधनाओंको छोड़कर अन्य कोई पदार्थ कर्मके उदयमें रक्षक सहायक शरणभूत नहीं होते हैं । ऐसा दृढ़ निश्चय करना चाहिये ।।१८३१।।
अशरण भावना समाप्त ।