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ध्यानादि अधिकार
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प्रगम्या विषयाः संति रविचंद्रामिलामरैः । अशा विसं फोपि नागम्यः कर्मणा पुनः ॥१८२३॥ न योषा रथहस्साश्वा विद्यामंत्रौषधादयः । सामादयोऽपि चोपायाः पान्ति कर्मोदयेऽङ्गिनाम् ।।१८२४॥ केनेहोदीयमानानां कर्मणां ज्योतिषामिव । निषेधः शक्यते कतुं स्वकीये समये सति ।।१८२५।। प्रतीकारोऽस्ति रोगाणां कर्मणां न पुनर्जने । कर्म मृद्गाति हस्तीव लोकं मतो निरंकुशः ।।१८२६।। प्रतीकारो न रोगाणां कर्मणामदये सति । उपचारो ध्र वं तेषामस्ति कर्मशमे सति ॥१८२७।।
इस जगतमें सूर्य के लिये अगम्यप्रदेश विद्यमान हैं, चन्द्र, वायु और देवोंको अगम्य ऐसे प्रदेश भी हैं किन्तु कर्मके लिये कोई प्रदेश अगम्य नहीं है ।।१८२३।।
संसारी जोवोंके पाप कर्मोका उदय आनेपर बड़े बड़े सहस्रभट, कोटोभट आदि योद्धा भी सहायक रक्षक नहीं बन पाते, रथ, हाथी, अश्य, विद्या, मंत्र (जिसके अंतमें "स्वाहा" शब्द होता है वह विद्या कहलाती है और जिसके अंतमें स्वाहा शब्द नहीं होता वह मंत्र कहलाता है) औषधि आदि तथा साम, दाम, दण्ड आदि उपाय कार्यकारी नहीं होते हैं अर्थात् इन उपायोंके करनेपर भी पापकर्मसे होनेवाले कष्ट, दुःख, वेदना और मृत्यु को दूर नहीं कर सकते हैं ।।१०२४।। जिसप्रकार आकाश में उदित होते हए सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र आदिको रोक नहीं सकते हैं उनका निषेध किसीके द्वारा भो होना शाक्य नहीं वे अपने-अपने समय पर अवश्य उदित होते हैं उसोप्रकार कर्मोंका उदय आनेपर उसको कोई भी रोक नहीं सकता, निषेध नहीं कर सकता कि अभी उदयमें नहीं आना इत्यादि ।।१८२५।।।
लोगोंके पास रोगोंका प्रतीकार तो है किन्तु कर्मों का प्रतीकार नहीं है । जैसे अंकुश रहित मत्त हाथो जन को नष्ट करता है, मसल देता है, वैसे कर्म जीवको नष्ट करता है ||१८२६।। कर्मोका तोव उदय आनेपर रोगोंका प्रतोकार नहीं हो पाता किन्तु जब कर्मों का उपशम या मंद उदय होता है तब उन रोगों का उपचार प्रतीकार