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मरणाकण्डिका
पुण्योदये परां कोति लभते गुणजितः । पापोदयेऽश्नुते गु/मोति गुणवानपि ॥१८१८॥ जन्ममृत्युजरातके दुःखशोकभयादिके । दीयमाने विपक्षण निरुपक्रमकर्मणा ॥१८१६॥ न कोऽपि विद्यते त्राणं देहिनो भुबनत्रये । न प्रविष्टोऽपि पाताल मुच्यते कर्मणा जनः ॥१८२०॥ नगदुर्गे क्षितौ शैले लोकांसे काननेऽम्युषो । गतोऽपि कर्मणा जीवो नोदीर्णेन विमुच्यते ।।१८२१॥ द्विचतुर्वहुपाला ये ते गच्छति महीतले । मले मीनाः स्वगा व्योम्नि कर्म सर्वत्र सर्ववा ॥१८२२॥
कोई नर गुण रहित है तो भी पुण्यके उदयमें श्रेष्ठ कीतिको प्राप्त करता है और पापके उदय होनेपर गुणवान व्यक्ति है तो भी बड़ो भारी अपकीतिको पाता है ॥ १८१८।।
जिसके प्रतिकारका काई उपाय नहीं है ऐसे निर्धात्त आदि तीव्र स्वभाव वाले विपक्षीके समान पापकर्म द्वारा दिये जानेवाले जन्म, मरण, जरा, पोड़ा, दुःख, शोक, भय आदिको जोवोंको भोगने ही पड़ते हैं। उस वक्त इन जीवोंको तोन लोकमें कोई शरण सहाय नहीं मिलता है तोव पापोदग्रसे युक्त जो चाहे पाताल प्रविष्ट हो जाय तो भी उस कर्म द्वारा छूट नहीं सकता है ।।१८१६।।१८२०।।
यह जीव चाहे पर्वतके किले-गढ़ आदिमें चला जाय या पृथिवीके अंदर फंस जाय, लोकांतमें, वनमें और समुद्र में भी छिप जाय किन्तु उदीरणाको प्राप्त हुए कर्म द्वारा छोड़ा नहीं जाता अर्थात् उक्त स्थानों पर भो कर्म अपना फल अवश्य देता है ॥१८२१॥
दो पैर वाले मनुष्य, चार पैर वाले अश्व, सिंह आदि बहुत पैर वाले प्रष्टापद पा कीट विशेष प्रादि प्राणोगण महोतल पर चलते हैं, रहते हैं। मीन, मगर आदि जल में रहते हैं। पक्षी आकाश में चलते हैं किन्तु कर्म तो जल, स्थल, प्राकाशमें सर्वत्र ही हमेशा ही रहता है ।।१८२२॥