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ध्यानादि अधिकार
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कर्मोदये मतिर्याति नोपायो विद्यतेऽङ्गिनाम् । सुधा विषं तृणं शस्त्रं बंधः शत्रुश्च जायते ॥१८१४॥ अस्ति कर्मोदये बुद्धिरुपायमवलोक्ते । विपक्षो जायते बंधः शस्त्रं पुष्पं विषं सुधा ॥१८१५।। अर्थः पापोषये सो हस्तप्राप्तोऽपि नश्यति । दूरतो हस्तमायाति पुण्यकर्मोदये सति ॥१८१६॥ नरः पापोदये दोषं यतमानोऽपि गच्छति । गुणं पुण्योदये श्रेष्ठं यत्नहोनोऽपि तत्वतः ।।१८५७!!
अशरण अनुप्रेक्षाका वर्णन इस संसारमें जब जीवोंके पापकर्मका तीव्र उदय प्राता है तब हेय उपादेय तत्त्वका विचार करनेवाली बुद्धि नष्ट हो जाती है । शरणभूत कुछ उपाय नहीं रहता। पापके उदयमें अमत भी विष जैसा बन जाता है, तृण भी शस्त्र जैसा घातक होता है और बंधु भी शत्रुवत् आचरण करने लगता है । इससे विपरीत जब पुण्यका उदय आता है तब ज्ञानावरण कर्मके तीव्र क्षयोपशम रूप बुद्धि प्राप्त होती है जो संपूर्ण पदारेको जानने में हेय और उपादेयताको दिखलाने में समर्थ होती है । पुण्योदय में दुःख, कष्ट आदि को दूर करने का उपाय सूझता है अथवा मोक्ष प्राप्तिका उपाय जानने में आता है। पुण्यके उदय होनेपर शत्रु मित्रवत् बन जाता है, शस्त्र प्रहार पुष्पहार बनता है और विष भी अमृत बनता है ।।१८१४॥१८१५।। .
__ जब जीवके पापका उदय आता है तब हाथमें पाया हुआ धन नष्ट हो जाता है और पृण्योदयके होने पर बहुत दूर देशांतग्में स्थित धनादि वंभव हाथ में आता हैप्राप्त होता है ।।१८१६।।
यह मनुष्य पापके उदय में दोषसे दूर रहना चाहता है तो भी दोषको प्राप्त होता है अथवा सदाचारी निर्दोष होनेपर भी पापोदयमें उसका अपवाद होता है और पुण्यके उदयमें आनेपर बिना किसी प्रयत्नके श्रेष्ठ गुण प्राप्त होते हैं अथवा पुण्योदयमें अकार्य करनेपर भी यश मिलता है प्रशंसा होती है ॥१८१७।।।