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________________ ५२६ ] मरएकण्डिका पौर्वाल्लिकी यथा छाया हीयते सुकुमारता । परालिकी यथा छाया सर्वदा वर्धते जरा ॥१८०६॥ तेजो नश्यति जीवानां निलिपधनुषामिव । उल्केवनश्वरी बुद्धिष्टनष्टाप्रजायते ॥१८१०।। बलं पलायते रूपमिव रथ्यागतं रजः । जलानामिव कल्लोलो बीर्य नश्वरमंगिनाम् ॥१८११॥ हिमपुजा इवानित्या भवन्ति स्वजनावयः। जंतूनां मत्वरो कोतिः संध्याथोरिव सर्वथा ।।१८१२।। छंद वंशस्थइवं जगमछारबारिवोपमं न जानते नश्वरमंगिनः कथम् । यमेन हंतु सकलाः पुरस्कृता मृगाधिपेनेव मृगा बलोयसा ॥१८१३।। इति अनित्य । बुढ़ापा सदा बढ़ता जाता है ||१८०६ ।। जीवों को शरीरकी कांति या तेज इन्द्रधनुषके समान नष्ट होता है । पदार्थोंका यथार्थ स्वरूप बतलाने वालो, कुगतिको रोकने वाली, चारित्र रूपी निधिको प्रगट करने में दोपकके समान ऐसी विशिष्ट बुद्धि भी देखते-देखते नष्ट हो जाती है ।।१८१०॥ गलोको धुलिमें रचा हआ किसीका आकार या रूप जैसे क्षणिक है वैसे मानवोंका बल क्षणिक है नष्ट होनेवाला है । जैसे जल में लहरें चंचल हैं नश्वर हैं वैसे जीवोंका पराक्रम-वीर्य बड़े बड़े योद्धा या मल्लोंका वीर्य भी नष्ट हो जाता है ।।१८११॥ स्वजन आदि हिमपुजके समान अनित्य होते हैं अर्थात् जैसे बर्फका ढेर क्षणभरमें पिघलकर नष्ट होता है वैसे स्वजन कुछ काल बाद नष्ट हो जाते हैं । जीवोंको महान कत्ति संध्याकी शोभाके समान सर्वथा नश्वर स्वभाव वाली है ।।१८१२।। यह जगत शरदऋतुके मेघके समान नश्वर है, अहो ! ये प्राणिगण इस बातको कैसे नहीं जानते ? जैसे बलवान सिंह द्वारा हरिण मारने के लिये पकड़े जाते हैं वैसे संसारी जीव यमराज द्वारा मारने के लिये मानों पुरस्कृत हो रहे हैं-सामने आरहे हैं अर्थात् सभोके समक्ष मृत्यु मंडरा रही है ।।१८१३।। __ अनित्य अनुप्रेक्षा समाप्त ।
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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