SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 565
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ध्यानादि अधिकार [ ५२५ छायानामिव पांथान संवासो नश्वरोंऽगिनाम् । चक्षुषामिव रागोऽत्र न स्नेहो जायते स्थिरः ॥१८०४॥ संयोगो देहिनां वृक्षे शर्वर्यामिव पक्षिणाम् । आश्विर्याश्यो भावाः परिवेषा इव स्थिराः ॥१८०५।। जीवानामक्षसामग्री शंपेवास्ति चला चलम् । विनश्वरमशेषाणां मध्याह्न इव यौवनम् ॥१८०६।। चंद्रमा बर्द्धते क्षोण प्रातुरेति पुनर्गत: । नदीजलमियातीतं भूयो नायाति गौतनम् ॥१८ ॥ धावते देहिनामायुरापगानामिबोदकम् । क्षिप्रं पलायते रूपं जलरूपभियोगिनाम् ॥१८०८॥ जाते हैं और पथिक चलता हुआ छायाका किंचित् संयोग करता हुआ आगे बढ़ता जाता है जैसे यह क्षणिक है वैसे परिवारके लोगोंका साथ अल्पकालीन है । जैसे प्रणय आदिसे कुपित व्यक्तिके नेत्र किंचित् काल तक लालिमा युक्त होते हैं वैसे प्रिय जनोंका स्नेह किंचित कालका है स्थिर नहीं है ।।१८०४।। जैसे रात्रिमें एक वृक्षपर पक्षियोंका संयोग होता है और रात्रि समाप्त होते ही संयोग समाप्त हो जाता है वैसे परिवारका संयोग अस्थिर है । सूर्य या चन्द्र में परिवेष जैसे क्षणिक है वैसे आज्ञा, ऐश्वर्य आदि भाव अस्थिर हैं क्षणिक हैं ॥१८०५।। जीवोंको इन्द्रियोंको भोग सामग्री विद्युतवत् चंचल है अथवा नेत्र आदि इन्द्रियां अस्थिर हैं, वृद्धावस्था में नष्ट होतो हैं अथवा कमजोर होती हैं । सभी जीवोंका यौवन मध्याह्न कालके समान विनश्वर है ।।१८०६।। इस जगत में चन्द्रमा क्षीण होकर पुनः वृद्धिंगत होता है । वसंत आदि ऋतुयें व्यतीत होकर पुन: पुन: आती हैं किन्तु हमारा यह प्यारा-प्यारा यौवन व्यतीत होनेपर पुनः लौटकर नहीं आता जैसे कि नदीका प्रवाह जो बहता जा रहा है वह पुनः लौटकर नहीं आता ॥१८०७।। संसारो प्राणियों की आयु नदीजलके समान वेगसे दौड़ रही है । जोवोंका रूप जलमें प्रतिबिंबत रूपके समान शोघ्र हो भाग जाता है ।।१८०८।। जैसे पूर्वाह्न कालमें छाया घटती जाती है वैसे शरीरको सुकुमारता घटती जाती है। जैसे सायंकालीन छाया बढ़ती जाती है वैसे
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy