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मरणकण्डिका
डिलीरपिंडवल्लोकः सकलोऽपि विलीयते । समस्ताः संपवश्चात्र स्वप्नभूतिसमागमः ॥१८०१॥ दृष्टनष्टानि सौख्यानि स्फुरितानीव विद्युताम् । बुदखुदा इध निःशेषा नश्वराः सन्ति गोचराः ॥१८०२।। नानादेशागता: पांथा नौगता इव बांषयाः । गत्वरा प्राधयाः सर्वे शारदा व नीरदाः ॥१८०३॥
तेरह श्लोकों द्वारा अनित्य भावनाका वर्णन करते हैं
यह समस्त लोक-संसारके पदार्थ डिंडीर पिंडसमुद्र का फेन या झागके समान नष्ट होनेवाले हैं तथा समस्त बंभव, धन, संपदायें स्वप्नके वैभव के समागम सदृश क्षणभंगुर हैं ।।१८०१॥
इन्द्रिय जन्य सुख बिजलीके चमकके समान देखते-देखते नष्ट होने वाले हैं। संसारके उच्च पद एवं स्थान जलके बुलबुलके समान नश्वर हैं ।। १८०२।।
भावार्थ-यह मोही प्राणी इन्द्रिय सुख और बड़े पद तथा स्थानोंके लिये बड़ा हो लालायित रहता है किन्तु ये सब विनाशीक है।
ये प्रिय बंधूजन नदीसे पार होने के लिये नाना देशोंसे आकर एक नाव में बैठने वाले पथिक जनोंके समान हैं अर्थात् जैसे नावमें अनेक ग्राम नगरवासी जन माकर बैठते हैं और नदीसे पार होते ही अपने स्थान पर चले जाते हैं फिर साथ नहीं रहते हैं वैसे बंधु, मित्र, पुत्रादि अनेक गतिसे आकर कुछ कालके लिये एक घर ग्रामादि में एकत्रित होते हैं यथासमय वहां से चल देते हैं उनका साथ सदाका नहीं है। स्वामी आदि आश्रयभूत पदार्थ भी शरद ऋतुके मेघ के समान अस्थिर-नश्वर हैं ।।१८०३।।
प्रिय जोवोंके साथ जो सहवास है वह मार्गमें चलते हुए पथिक पुरुषों को वृक्षों की छायाके समान अति अल्पकाल रहकर नष्ट होने वाला है अथवा मार्ग में स्थित वृक्षों को छायामें जैसे अनेक पथिक आकर बैठते हैं परस्पर मिलते हैं और अन्यत्र भिन्न भिन्न दिशामें चले जाते हैं अथवा विश्वास हेतु कुछ हो समय तक वृक्षकी छायामें बैठते हैं पुनः उस छायाको छोड़कर चले जाते हैं अथवा मार्गके दोनों किनारे पर वृक्ष आते