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मरणकाण्डिका
मन्दिरादिषु तुगेषु सुखेनारुह्यसेयया । द्रव्यथितिर्मता प्राज्ञैः सा सोपानादिलक्षणा ॥१७६।। द्रव्यधिति परित्यज्य भावधिति मधिश्रितः । चारित्रे चेष्टतां शुद्ध त्यक्तुकामः कलेवरम् ॥१८०i द्रध्यभावश्रिति ज्ञानाः सन्त्युत्तर पदोद्यताः। नह्मधोऽध: प्रशंसंति पदमूर्य यियासवः ॥१५॥ गणिनैव समं जल्पः कार्याथ यतिभिः परः । कुदृष्टिभिः समं मौनं शांतः स्वैश्च विकल्पते ॥१८२॥
मर्थ–मन्दिर आनि स्थानों में जिसके द्वारा मुख पूर्वक चढ़ा जाता है वह सोपान रूप द्रव्य निति है ऐसा प्राज्ञ पुरुषोंने प्रतिपादन किया है ।।१७६।।
अर्थ-शरीरका त्याग करनेमें समुत्सक मुनिराज को उपर्युक्त द्रव्यश्रितिका त्याग कर भावथितिका आश्रय लेना चाहिये और शुद्ध चारिश्रमें चेष्टा करनी चाहिये ||१८०॥
___अर्थ-द्रव्य और भावरितिका जिन्हें ज्ञान है वे पुरुष ऊपर-ऊपर के पद-रत्नयकी आगे-आगे की उन्नति के लिये उद्यमशील होते हैं। क्योंकि ऊर्ध्व पदमें गमनके इच्छुक पुरुष नीचे-नीचे के पदको प्रशंसा नहीं करते हैं । अभिप्राय यह है कि भावोंकी विशुद्धि में आगे-आगे वृद्धि करना, अशुभ भाव का त्याग, शुभ परिणाम उत्तरोत्तर बढ़ना, शुद्ध परिणाम की प्राप्तिमें प्रयत्न भावश्रिति कहलाता है ।।१८१||
अर्थ-समाधि के इच्छुक साधुको आचार्य के साथ ही धर्म सम्बन्धी प्रश्नादि रूप वार्तालाप करना चाहिये अन्य मुनिके साथ कार्य हो तो बोले अन्यथा नहीं। मिथ्यादृष्टि के साथ मौन रहना चाहिये, और अन्य शान्त परिणामी स्वजनोंके साथ स्वेच्छासे बोलना चाहिये अर्थात् उनके साथ वार्तालाप करे अथवा न करे ।।१८२।।
भावार्थ-प्राचार्य के साथ बोलनेसे शुभ परिणाम होते हैं, उनसे योग्यायोग्यका विवेक होता है सल्लेखना के निर्देशक तो वे हो हैं अतः उनसे संभाषण हितकर है। अन्य मुनिके साथ अधिक बोलेंगे तो प्रमाद वश अशभ भाव हो सकते हैं, मिथ्यावृष्टि के साथ तो मौन हो कार्यकारी है । हाँ यदि कोई मिध्यादृष्टि अत्यन्त भद्र है और अपने बोलनेसे मोक्षमार्ग में लग जाता है तो उससे किंचित् बोले।