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भक्तप्रत्याख्यानमरण हे यादि अधिकार
समस्त द्रव्य पर्याय ममता संग यजितः । निःप्रेमस्नेह रागोऽस्ति सर्वत्र समदर्शन
इति उपधि त्यागः ।
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२७७॥ गाय
उपर्युपरि शुद्ध ेषु गुणेष्वारुह्यते यया । भावाश्रितिर भाष्येषा विशुद्धा जोववासना ॥ १७८॥
मन्दसौर
भावार्थ — दूसरे प्रकार से विवेक का कथन है- पूर्वकालमें जिस वसति और संस्तर में रहे थे उनका त्याग शय्यासंस्तर विवेक है। यहां पर उपधि शब्द से पीछी आदि उपकरणों को लेना उपकरणों के संस्कार आदि छोड़ देना उपकरण विवेक है । व्यावृत्य करने वाले का सहवास छोड़ना, अथवा उनकी अपेक्षा नहीं रखना वैयावृत्यकर विवेक है । आहार पान के पदार्थ छोड़ देना भक्त पान विवेक है । अथवा अमुक अमुक आहार पानकी वस्तुको मैं ग्रहम वहीं कल्पा ऐसा या, यह भक्त पान विवेक है | अपने शरीर को कुछ उपद्रव होने लग जाय तो उसे दूर नहीं करना, आते हुए उपसर्ग को दूर नहीं करना शरीर विवेक है ।
अर्थ - जीवादि समस्त द्रव्य उनकी पर्यायें इनमें ममत्व और आसक्ति छोड़ देना इष्ट पदार्थ अपने लिये उपयोगी पदार्थ में प्र ेम स्नेह राग भाव नहीं रखना सर्व देश काल भावादिमें समभाव होना यह सब परिग्रह त्याग का क्रम जानना चाहिये ।।१७७ ॥
भावार्थ — जीव पुद्गलादि द्रव्यों को पर्यायें अर्थात् योग्य शिष्यादि विशिष्ट संस्तर उपकरण आदि जीव और पुद्गल सम्बन्धी पर्याये हैं उनमें राग भाव और अयोग्य शिष्यादि तथा खराब संस्तर आदि जीव पुद्गल सम्बन्धी पर्यायों में द्वेष भाव नहीं करना चाहिये यही परिग्रह त्याग का क्रम यहां पर जानना । सम्पूर्ण पदार्थों में समभाव होना परिग्रह त्याग का मूल है । इसीसे सहज ही परिग्रह त्याग हो जाता है ।
इसप्रकार उपथित्याग नामका अधिकार पूर्ण हुआ ।
अर्थ -- अब श्रिति नामा नौवें अधिकार का कथन करते हैं-- सम्यक्त्व आदि गुणोंमें आगे-आगे प्रतिदिन शुद्धि का बढ़ते जाना। जिसके द्वारा उन्नत अवस्था-रत्नत्रय की उन्नति करते रहना । उन भावों को भाव श्रिति कहते हैं । जीव के जो रत्नत्रय में विशुद्ध संस्कार हैं वह भावश्रिति है ।। १७८ ||