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आराधनास्तवनम्
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शार्दूलया संसारमहोदधेः प्रतरणी नौरेव भव्यात्मनाम् । या दुःखज्वलनावलीडवपुषां निर्धापणी स्वधुंनो । या चितामणिरेव चितितफलः संयोजयन्ती जनान् । सा निःश्रेयसहेतुरस्तु भवतामाराधना देवता ॥२५॥
शार्दूलपा पुण्यास्रवमूतिरेकपदवी स्वर्गालयारोहिणाम् । या मार्गत्रयवतिनीति विदिता निर्धूतनानारजाः ।। यस्याः सद्गुरुपर्वतः प्रभव इत्याहु पुरादिनः । सा वः पापनलानि गालयतु खल्वाराधनास्वधुनी ॥२६॥
शार्दूलया सर्वहिमाचलात्प्रगलिता पुण्यांबुपूर्णा शुचिः । या सज्ज्ञानचरित्रलोचनधरमा गणोन्द्र धुता ।। या कर्मानलघर्मपीडितमुनीन्द्र भावगाहक्षमा । सा वो मंगलमातनोतु भगवत्याराधनास्वधु नी ॥२७॥
- भव्य जीवोंको संसार सागर तिरने के लिये आराधना नौका सदृश है, दुःखरूप अग्निसे जले हुए जीवोंको शांतिसुख देनेवाली स्वर्गगगाके समान है और मनोवांछित फलोंसे लोगोंको संयुक्त करती है ऐसी आराधना देवता आपको मोक्ष देने में हेतु बने ॥२५।। पुण्यास्रव की मानो मूर्ति हो ऐसी यह आराधना गंगा स्वर्गारोहण करनेवालों को मार्गस्वरूप होबे, रत्नत्रय स्वरूप होनेसे लोग इस ओराधनाको विमार्गणा कहते हैं, इसकी सेवासे नाना प्रकारके पातक नष्ट होते हैं, सद्गुरु रूप पर्वतसे यह प्रगट हुई है ऐसा प्राचीन आचार्य कहते हैं । ऐसी आराधना गंगा तुम्हारे पापमलोंको गाले ।।२६।। यह आराधना गंगा सर्वज्ञरूप हिमालयसे उत्पन्न हुई है, पुण्यरूप जलसे भरी है, निर्मल है, सम्यग्ज्ञान और चारित्र रूप नेत्रों को धारण करनेवाले गणधरोंने जिसको मस्तक पर धारण किया है, कर्मरूप अग्निसे संतप्त हुए मुनिजन रूप हाथी जिसमें अबगाहन करते हैं ऐसी आराधना स्वर्गगंगा तुम्हारा मंगल करे ।।२७।। यह आराधना नदो पुण्य
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