SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 106
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मरणकण्डिका विधापितस्तपो योग्यं हृषीकार्थ परांमुखः । जायते मृत्यु कालेंगी परोषह सहस्तथा ।।२००। चतुरंग परीणाम श्रुत भावनया परः । निव्यक्षिपः प्रतिज्ञातं स्वं निर्याहयते ततः ॥२०१॥ स्वन्यस्तजिनवाक्यस्यरचितो चित कर्मणः । पारी जहापदः शकः दगातु नमिलोणनम ।।२०२।। भीष्यमाणोऽप्यहोरात्रं भीमरूपः सुरासुरैः । सत्व भावनया साधु धुरि धारयतेऽखिलम् ।।२०३।। अर्थ-उसी प्रकार इन्द्रियों के विषयोंसे जो विरक्त है अनशन आदि योग्य तपको जिसने पूर्वकाल में भलो प्रकार कर लिया है वह साधु मरणकालमें परीषह सहने में समर्थ होता है ।।२००॥ तपोभावना समाप्त हुई। ज्ञान भावनाअर्थ-धृत भावना अर्थात् भली प्रकार से शास्त्रोंका अध्ययन जिसने कर लिया है वह अपनी श्रत भावना द्वारा चतुरंग परिणाम-सम्यक्त्व आदि चार आराधना में उपयुक्त होता है । निर्याक्षेप अर्थात् विक्षेपविकल्प या आकुलता रहित होकर अपने प्रतिज्ञात नियम को अच्छी तरह निभाता है ।।२०१॥ अर्थ-जिसने जिनेन्द्र प्रभुके वाक्य अर्थात आगमार्थ में अपने को लगाया है पठन मनन आदि उचित क्रियामें जो तत्पर है ऐसे साधु के मरणकाल में वेदना के समय भी परीषह उपसर्ग आदि स्मरण का नाश नहीं कर पाते । अर्थात् भलो प्रकार शास्त्र ज्ञान में लगे रहने से वह ज्ञान सदा जाग्रत रहता है मरण को वेदना से भी वह विस्मृत नहीं होता । अथवा शास्त्राभ्यासी साधुके स्मृतिका नाश नहीं होता। इसप्रकार ज्ञान या श्रत भावना का फल जानकर सदा ज्ञान में भावना करनी चाहिये ।।२०२।। श्रु तभावना पूर्ण हुई। सत्व भावनाअर्थ-भयंकर रूपवाले देव और असुरों द्वारा दिन रात डराने पर भी साधु सत्व भावना से अखिल संयम धुरा को धारण कर लेते हैं ।।२०३।।
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy