SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 105
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भक्तप्रत्याख्यानमरण ग्रह आदि अधिकार [ ६५ इंद्रियार्थ सुखासक्तः परीषह पराजितः । जीवोऽकृतक्रियाः क्लीबो मुह्यत्याराधनाविधौ ॥१६॥ लालितः सर्वदा सौख्यरकारित परिक्रियः । कार्यकारी यथा ना श्वो बाह्यमानो रणांगणे ॥१९७॥ प्रकारित तपो योग्यश्चिरं विषय मूच्छितः।। न जीवो मृत्युकालेऽस्ति परोषहसहस्तथा ।।१९।। विधापितः क्रियां पाग्यां सर्वदा दुःख वासितः । बाह्यमानो यथा बाजी कार्यकारी रक्षितौ ॥१६६।। अर्थ-जो साधु उक्त तपो भावना रहित है अर्थात् अनशन आदि तपश्चर्या नहीं करता है वह इन्द्रिय सुखमें आसक्त होता है, परीषह उसे पराजित कर देती है अर्थात् वह परीषहोंपर विजय नहीं पाता, करने योग्य क्रिया को नहीं कर पाता और इसप्रकार शक्ति हीन नपुसक जैसा हुआ आराधना विधि-सन्यासमरण या सम्यक्त्वादि चार आराधना करने में असमर्थ होता है ।। १९६।। अर्थ-जिस प्रकार सदा जिसको सुखोंमें लालित किया है सवारी आदि परिक्रिया जिससे नहीं करायी है ऐसा अश्व युद्ध स्थल में कार्य में लगाने पर भी अपने कार्य करने में समर्थ नहीं होता ।।१९७।। अर्थ-उसी प्रकार जो विषयों में मच्छित है, योग्य तपको चिरकाल तक जिसने नहीं किया वह यति मरणकालमें परोषह वेदना आदि सहने में समर्थ नहीं हो सकता ॥१६॥ विशेषार्थ-शब्दों का अभिप्राय समझकर चलना, दौड़ना, कूदना इत्यादि कार्योंका जिसे अभ्यास नहीं कराया है केवल सुखसे पुष्ट किया है ऐसा घोड़ा युद्ध भूमि में युक्त कार्य नहीं कर पाता स्वामीको सहायता नहीं देकर उलटे वहांसे भाग जाता है। ठीक इसी तरह जिसने पूर्वकालमें तप नहीं किया है, क्षुधा आदि सहन नहीं किये हैं तो वह साधु मरणकालमें परोषह आदिके सहन करने में समर्थ नहीं होता। अर्थ-जिस अश्व द्वारा पहले कदना इशारे पर चलना शोत आदि सहना इत्यादि कार्यों को कराया गया है सदा दुःखों से वासित किया है ऐसे अश्वको रण भूमि में ले जाने पर वह स्वामो के इशारे पर चल कर युद्ध में कार्यकारी होता है ।।१९६il
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy