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मरणकण्डिका
रत्नत्रयं विराध्याभिर्भावनाभिविवं गतः । भोषणे भवकान्तारे चिरं बंभ्रम्यते च्यतः ।।१६२॥ पंचेति भावनास्त्यक्त्वा संक्लिष्टः समितो यतिः। षष्टया प्रवर्तते गुप्तः संविग्नः संगजितः ॥१३॥ असंक्लिष्टतपः शास्त्र सत्वैकत्व धुतिश्रिता । पंचधा भावना भाव्या भवभ्रमण भीरुणा ॥१४॥ दांतान्यक्षाणि गच्छन्ति तपो भावनया वशं । विधानेनेन्द्रियाचार्यः समाधाने प्रवर्तते ॥१६॥
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अर्थ---जो यति इन कांदी आदि खोटी भावना द्वारा रत्नत्रयकी विराधना करते हैं वे देवदुर्गति [भवनवासो, ज्योतिषी व्यन्तर] में उत्पन्न होते हैं और वहांसे च्युत होकर भीषण संसार अटवीमें बार-बार भ्रमण करते हैं ।।१६।।
अर्थ-इसप्रकार इन भावनाओंका खोटा फल जानकर इन पांचोंका त्याग करता है और संक्लेश रहित, समिति का पालक, परिग्रहरहित, त्रिगुप्ति संयुक्त होता हुआ छठी भावनामें प्रवृत्त होता है ।।१९३।।
अब उसी छठी ग्राह्य भावना को बताते हैंअर्थ-जो संक्लेश रहित है ऐसी ग्राह्य भावना पांच प्रकार की है, तपोभावना ज्ञान भावना, सत्त्व भावना, एकल भावना, धृतिभावना। संसार से भयभीत साधु को इन भावनाओं को भाना चाहिए ।।१६४॥
भावार्थ-बार-बार चितन या अभ्यास को भावना कहते हैं । तपश्चरण का अभ्यास तपोभावना है । ज्ञानश्र त का अभ्यास करना ज्ञान भावना है। निर्भयता का अभ्यास सत्वभावना है । मैं अकेला ही हूँ ऐसा एकत्व का अभ्यास एकत्व भावना है । कष्ट आदि में धैर्य रखने का अभ्यास धृतिबल भावना है।
अर्थ-तपो भावना से दमित हुई इंद्रियाँ वश हो जाती हैं, इस तपभावना रूप विधान के द्वारा साधु इन्द्रियाचार्य अर्थात् इन्द्रियों का शिक्षा देने वाला होता है और वह समाधान-अर्थात् रत्नत्रय में प्रवृत्त हो जाता है ।।१६५॥