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भक्तप्रत्याख्यानमरण अर्ह आदि अधिकार
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विमुह्यत्युपसर्गे नो सत्व भावमया यतिः । यसभावनया युद्ध भीषणेऽपि भटो यथा ॥२०४॥ कामे भोगे गणे वेहे विवृद्ध कत्वभावनः । करोति निःस्पहीभूय साधुधर्ममनुत्तरम् ॥२०५॥ स्वसु विधर्मतां दृष्ट्वा जिनकल्पीय संयतः ।। एकत्वभावनाभ्यासो न मुह्यति कदाचन ।।२०६॥
इति एकात्वं ।
अर्थ--सत्त्व भावना के बलसे साधु उपसर्ग के समय मोहित नहीं होता अर्थात् उपसर्ग पर विजय पाता है। जैसे कि जिसने युद्ध का अभ्यास कर लिया है ऐसा सुभट उस युद्ध भावना के बलसे भीषण युद्ध में भी डरता नहीं विजय पाता है ।।२०४।।
सत्त्व भावना समाप्त हुई।
एकरव भावनाअर्थ-काममें, भोगमें संघमें और शरीर में जिसने एकत्वकी भावना को बढ़ाया है अर्थात ये काम भोग आदि मुझसे भिन्न हैं मैं सर्वथा अकेला हूं इत्यादि रूप एकत्व भावना युक्त जो साधु है वह निस्पृह होकर उत्कृष्ट धर्मको करता है ।।२०५।।
अर्थ-जिनकल्पी नागदत्त नामके मुनिराज अपने बहिन के साथ अनेक अत्याचार को होते हुए देखकर भी एकत्व भावना का अभ्यास होने से मोहित नहीं हए उन मुनिराज के समान ही एकत्व भावना वाले साधु किसी भी पदार्थ में मोह को प्राप्त नहीं होते हैं ॥२०६॥
नागवत्स मुनि कथा-नागदत्त नामके एक राज पुत्र थे, वैराग्य युक्त होकर उन्होंने जैनेश्वरी दीक्षा लो और घोर तपश्चरण करते हुए जिनकल्पी मुनिराज बने एक समय के वनमें ध्यान के लिये प्रविष्ट हुए उस स्थान पर डाकुओं का अहा था, डाकुओं ने समझा कि यह व्यक्ति हमारा भेद पथिकों को बतायेगा ऐसा मानकर वे डाकु उन्हें श्रास देने के लिये उद्यत हुए किन्तु मुनिराज के स्वरूप को जानने वाले डाकू.
ओंके सरदार ने त्रास देने से रोक दिया और कहा कि ये सब संसार माया से दूर हैं इन्हें किसी से ममत्व नहीं इत्यादि । मुनिराज कुछ काल तक वहीं ठहर गये । एक दिन