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________________ ६८ ] मरकण्डिका उपसर्ग महायोधां परीषहचमूं परं । कुर्वाणामपसत्वानां बुनिवाररयां भयम् ॥ २०७ ।। उन नागदत्त मुनिराज को माता जो कि नगर के राजा को प्रमुख रानी थी और अपनी कन्याको तथा योग्य वैभव एवं परिकर को लेकर दूसरे देश में जा रही थी, उसी वनमें पहुंची वह मुनिराज के दर्शन कर प्रश्न करती है कि हे साधो ! आप यहां वनमें निवास करते हो मुझे बताईये कि इस वनमें कुछ भय तो नहीं है ? मेरे साथ युवती कन्या अर्थात् आपकी बहिन है और वैभव है । एकत्व भावना से वासित है मन जिनका ऐसे वे श्रेष्ठ यति गोस्थ रहे उतर नहीं दिया जबकि वे जानते थे कि यहां चोरों का भय है । रानी वनमें आगे गमन कर जाती है और बीच में डाकुओं द्वारा पकड़ी जाती है | डाकु समस्त माल तथा रानी और सुन्दर नव यौवना राजकन्या को अपने सरदार के निकट ले जाते हैं । सरदार खुश होकर कहता है देखो | मैंने पहले कहा था ना कि मुनिराज किसी को कुछ नहीं बताते हैं । इस वाक्य को सुनकर रानी अत्यन्त कुपित होकर कहती है है सरदार ! मुझे छूरी दो जिस उदर में मैंने उस पापी मुनि को नव मास रखा उसको चीर डालती हूं उसने मेरे उदर को अपवित्र किया है इत्यादि । इस वाक्य को सुनकर सरदार को मालूम होता है कि यह मुनिराज की माता है और यह सुन्दर कन्या बहिन है । मुनिराज के इतने विशिष्ट निस्पृह भाव को ज्ञातकर सरदार एकदम विरक्ति को प्राप्त होता है और गद्गद् वाणी से कहता है कि है माता ! तुम धन्य हो तुम तो जगत्माता हो, तुम्हारी कुक्षि धन्य है वह कदापि अपवित्र नहीं जिससे ऐसे महान वैरागी आत्मा ने जन्म लिया । इत्यादि वाक्य से रानीको सांत्वना देकर रानी को अपनी माता और कन्या को बहिन सदृश आदर करके सम्पूर्ण वैभव के साथ उनके इष्ट देशमें पहुंचा देता है, तथा स्वयं सर्व चौर्य आदि पापों का त्याग करता है । इसप्रकार नागदत्त नामा मुनिराज का यह अत्यन्त वैराग्य प्रद कथानक है । एकत्व भावना समाप्त । धृति भावना- अर्थ--उपसर्ग रूपी महान् योद्धा जिसमें है ऐसी परोषहरूपी दुर्वारवेग वाली बड़ी भारी सेना जो अल्पशक्ति वाले जीवोंको भय उत्पन्न करती है, उसको धीर वीर
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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