SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 518
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४७८ ] मरकण्डिका कमी तपोधनाः प्राप्ताः स्वार्थमेकाकिनो यदि । अध्यास्य वेवनास्तीत्राः निःप्रसोकारविग्रहाः ।। १६३५ ।। चतुविधेन संघेन विनीतेन निषेवितः । दाराधय से न त्वं देवोमाराधनां कथम् ।।१६३६ ।। कलिपुट: पीत्वा जिनेंद्रबचनामृतम् । संघमध्ये स्थितः शक्तः स्वार्थ साधयितुं सुखम् ।।१६३७।। तिर्यग्वरस्वगं सुख दुःखानि सर्वथा । त्वं चितय महाबुद्ध ! भवलब्धान्यनेकशः ।। १६३८ ।। नरके वेदनाश्चित्रा दुःसहासतदायिनी । देहासक्ततया प्राप्ताश्चिरं यास्ता विचितय ।। १६३६ ॥ अन्त में अपने अपने भावों की पवित्रता के अनुसार उनमें से कितने ही मोक्ष में गये और कितने ही स्वर्ग में | कथा समाप्त । जिनके शरीरका प्रतीकार करने वाला कोई नहीं है तथा तीव्र वेदना को प्राप्त हैं ऐसे ये तपस्वी साधुजन अकेले अकेले होकर भी यदि रत्नत्रय को प्राप्त हुए थे तो चतुविध विनीत संघ द्वारा सेवित ऐसे तुम आराधना देवी को किस प्रकार आराधना नहीं करते हो ? अर्थात् पूर्वोक्त मुनिराज तो अकेले थे कोई साथी सहायक नहीं था महाभयानक उपसर्गकृत वेदना ने भी उन सबको घेरा था ऐसो स्थिति में भी उन्होंने समाधिमरण प्राप्त किया तो सर्वसंघ तुम्हारी सेवा में प्रवृत्त है वेदना का प्रतीकार भी चल रहा है अत: तुम रत्नत्रय की आराधना कैसे नहीं करोगे ? ।।१६३५ ।। १६३६ ।। हे क्षपक ! संघ के मध्य में रहते हुए तथा कररूपी अंजुलि द्वारा जिनेन्द्र भगवान की वाणी रूपी अमृत को पीकर मोक्षरूप जो अपना स्वार्थ है उसको सुख पूर्वक सिद्ध किया जा सकता है ।। १६३७|| भो क्षपक ! हे महाबुद्ध ! तुमने अतीत कालमें अनेकों बार नरकगति, तियंचगति, मनुष्यगति एवं देवगतिके दुःख सुखोंको सब प्रकार से प्राप्त किया है उन दुःखों को अब स्मरण करो ! ॥१६३८ ।।
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy