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सारवणादि अधिकार
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कुलारिष्टसंज्ञेन दग्धायां वसतौ गरणी । साधं वृषभसेनोऽगादुत्तमार्थ तपोधनः ॥१६३४॥
मुनिराज मिले और वह उन्हीं से विवाद करने लगा। महाराजश्री के स्याद्वाद सिद्धान्त के सामने वह एक क्षण भी न टिक सका और लज्जित होता हुआ घर लौट गया, पर उसके हृदय में अपमान की आग धधकने लगो। उसकी शान्ति के लिए उसने एक भांड को मुनि बनाकर रानी सुअता के महल में भेज दिया और सजा को वहीं लाकर खड़ा कर दिया । उस मुनि भेषी भांड को कुत्सित क्रियाएँ देखकर राजा क्रोध से अन्धा हो गया
और उसने उसी समय आदेश दिया कि नगरमें जितने दिगम्बर साधु हों वे सब घानी में पेल दिये जाय । मन्त्री तो यह चाहता हो था। उसने तत्काल सब मुनिराजों को घानी में पेल दिया । इस महान दुःसह उपसर्ग को प्राप्त होकर भी साधु समूह अपने साम्यभाव से विचलित नहीं हुआ और उत्तमार्थको पाप्त किया।
कथा समाप्त ।
कुलाल नगरीमें अरिष्ट नामके दुष्ट पुरुष द्वारा वसतिका को जला देनेपर वृषभसेन नामके आचार्य मुनियों के साथ उत्तमार्थको प्राप्त हुए थे ।।१६३४।।
___ आचार्य वृषभसेनकी कथादक्षिण दिशा की ओर बसे हुए कुलाल नगरके राजा वैश्रवण बड़े धर्मात्मा और सम्यग्दृष्टि थे । इनका मंत्री इनसे बिल्कुल उल्टा मिथ्यात्वी और जैनधर्मका बड़ा द्वेषी था। सो ठीक ही है, चन्दन के वृक्षों के आसपास सर्प रहा ही करते हैं। एक दिन वृषभसेन मुनि अपने संघ को साथ लिए कुलाल नगर की ओर आये वैश्रवण उनके आने का समाचार सुन बड़ो विभूति के साथ भव्यजनों को संग लिये उनकी वन्दना को गये । भक्ति से उसने उनकी प्रदक्षिणा की, स्तुति की, वन्दना को और पवित्र द्रव्यों से पूजा की तथा उनसे जैनधर्म का उपदेश सुना । मंत्री ने मुनियों का अपमान करने की गर्ज से उनसे शास्त्रार्थ किया, पर अपमान उसी का हुआ । मुनियों के साथ उसे हार जाना पड़ा । इस अपमान को उसके हृदय पर गहरी चोट लगी । इसका बदला चुकाने का विचार कर वह शाम को मुनिसंघ के पास आया और जिस स्थान में वह ठहरा था उसमें उस पापो ने आग लगा दो । पर तत्वज्ञानी वस्तु स्थिति को जानने वाले मुनियों ने इस कष्ट की कुछ परवा न कर बड़ी सहनशीलताके साथ सब कुछ सह लिया और