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मरण कण्डिका
यंत्रेण पीडचमानांगाः प्राप्ताः पंचशतप्रमाः । कुंभकारकटे स्वार्थमभिनंदनपूर्वगाः ॥ १६३३॥
पीने ही वाला था कि
रोग हो गया । उसने उस रोगकी औषधि बनवाई । वह उसे इतने में उसी रोग से पीड़ित एक मुनिराज आहार के लिए इसो ओर आ निकले । राजा नेपथ्य सहित वह औषधि मुनिराज को पिला दी, जिससे उनका बारह वर्ष पुराना रोग ठीक हो गया । उस पुण्यके फलसे आगामी भवमें राजा अमलकपुर के राजा नंदीसेन और रात्री नन्दनवीके अन्य दागका पुत्र हुआ । समय पाकर उसने राज्य सिंहासन को सुशोभित किया । एक समय धन्य राजा भगवान नेमिनाथके समवशरण में धर्मोपदेश सुनने के लिए गये थे । वहां उन्हें वैराग्य हो गया और वे वहीं दीक्षित हो गये । पूर्वभव में जो बच्चों और पशुओं के भोजन में अन्तराय डाला था । उस पापोदयसे प्रतिदिन गोचरी को जाते हुए भी उन्हें लगातार नौ माह तक आहारका लाभ नहीं हुआ अन्तिम दिन वे सौरीपुर के निकट यमुनाके किनारे ध्यानस्थ हो गये । उस दिन वहांका राजा नमें शिकार खेलने आया, पर दिनभर में उसे कुछ भी हाथ न लगा । नगर को लौटते हुए राजा को दृष्टि मुनिराज पर पड़ी। उन्हें देखते ही उसका क्रोध उबल पड़ा कि इसने हो आज अपशकुन किया है। प्रतिशोध की भावना से राजा ने मुनि के शरीरको तीक्ष्ण बाणों से बींध डाला । सैकड़ों बाणों के एक साथ प्रहारसे मुनिराज का शरीर चलनी की सदृश जर्जरित हो गया और सारे शरीर से रक्त धाराएँ फूट पड़ीं । मुनिराज ने उपसर्ग प्रारम्भ होते ही प्रायोपगमन सन्यास ग्रहण कर लिया और चारों आराधनाओं में संलग्न होते हुए प्रन्तकृत केवली होकर मोक्ष पधारे ।
कथा समाप्त
अभिनंदन आदि पांचसौ मुनिराजोंने कु ́भकारकट नामके नगर में यंत्र में पेले जानेपर भी रत्नत्रयकी आराधना की थी ।। १६३३॥
अभिनंदन आदि पांचसौ मुनिराजोंकी कथा
दक्षिण भारत में स्थित कुम्भकारकट नगरके राजा का नाम दण्डक, रानी का नाम सुव्रता और राजमन्त्री का नाम बालक था। बालक मन्त्री जैनधर्म का विरोधी और अभिमानी था । एक समय उस नगर में अभिनन्दन आदि पाँच सौ मुनिराज पधारे । मन्त्री बालक उनसे शास्त्रार्थ करने के लिए जा रहा था । मार्ग में उसे खण्डक नामके