SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 519
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सारणादि अधिकार । ४७६ क्षिप्तः श्वश्रावनौ क्षिप्रं मेहमानोऽपि सर्वथा । उष्णामुळमनासाद्य लोहपिंडो विलीयते ॥१६४०॥ क्षिप्तस्तत्राग्निना तप्तोमेहमात्रः सहस्रधा । शोतामवनिमप्राप्य लोहपिंडो विशोर्यते ॥१६४१॥ तादृशो थेवन। वन्ने धोरदुःले मिसजा । यादृशो चूणितस्यास्ति क्षिप्तक्षारस्य चेततः ॥१६४२।। यच्छुयभ्रावसथे भीमे प्राप्नोददुःखमनेकधा । निशितः कंटकर्लोस्तुग्रमानः समंततः ॥१६४३।। यच्छले कट शाल्मल्यामसिपत्रवने गतः । सर्वतो भक्ष्यमाणोऽयं कंककाकाविपक्षिभिः ॥१६४४॥ - - - नरकगतिके दुःखहे क्षपक ! शरीरमें मोह होनेके कारण नरकगति में तीव्र असाता को देनेवाली विचित्र वेदनाओंको जो चिरकाल तक प्राप्त किया था उन्हें याद करो ! विचार करो ॥१६३९।। मेरु प्रमाण लोहे का पिंड नरक भूमि में डाल दिया जाय तो वह वहांकी उष्ण पृथिवीको प्राप्त होने के पहले रास्ते में ही विलीन हो जायगा-पिघल जायगा । इतनी भयंकर उष्णता नरकमें है ।।१६४०॥ और अग्निसे तपा हुआ वह मेरु प्रमाण लोहपिंड नरकमें डालने पर शीत भूमिको प्राप्त होने के पहले ही हजारों खंडरूप विशीर्ण होता है ।।१६४१।। घोर दुःखोंसे भरे हुए नरकमें स्वभावतः ही बंसी वेदना है जैसी वेदना मुद्गरसे पोटकर खारे जल में डाले गये अमूच्छित व्यक्तिको हुआ करती है ।।१६४२।। ___ भयंकर नरक भूमिमें पैने नुकीले लोहमयी कांटोंके द्वारा चारों ओरसे तुम छेदे जाकर अनेक बार दुःखको प्राप्त कर चुके हो ।। १६४३।। शलके समान असिपत्र वनमें कूट शाल्मली वृक्ष जहां है वहां पर तुम जब गये थे तब सब ओरसे कंक, काक आदि पक्षीके द्वारा (पक्षीका रूप लेकर आये हुए नारको द्वारा) खाये गये थे हे क्षपक ! उस वक्त जो वेदना हुई उसे स्मरण करो
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy