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________________ [ १०९ सहलेखनादि अधिकार शिष्टोऽपि दुष्टसंगेन विजहाति निजं गुणं । नीरं किं नाग्नियोगेन, शीतलत्वं विमुचति ॥३५१॥ लाघवं दुष्टसंगेन, शिष्टोऽपि प्रतिपयते । किं न रत्नमपी माला, स्वल्पार्धाशयसंगता ॥३५२।। संयतोऽपि जनर्तुष्टो दुष्टानामिह संगतः । क्षीरपा ब्राह्मणः शोण्ड: शोण्डानामिव शंक्यते ॥३५३॥ परदोषपरीवावग्राही लोकोयतोऽखिलः । अपवावपवं दोषं मुचध्वं सर्वदा ततः ॥३५४॥ दुर्जनेन कृते दोष, वोषमाप्नोति सज्जनः । कादम्बः कौशिकेनेव, दोषिकेणापदूषणः ३५५।। शिष्ट पुरुष भी दुष्ट सङ्गति से निजगुण को छोड़ देता है । क्या अग्नि के संसर्गसे जल निज शीतलत्व गुणको नहीं छोड़ता है ? छोड़ता ही है ॥३५१।। दुष्टके सम्पर्कसे शिष्ट पुरुष भो लघुता को प्राप्त होता है। क्या रत्न निर्मित माला भी शव के संसर्ग से अल्प मूल्य बाली नहीं होती ? होती ही है ॥३५२।। संयमी मनि भी दुष्टोंके संगति में आया हुआ, लोगोंसे दुष्ट हो माना जाता है जैसे कि दुग्ध पीनेवाले ब्राह्मण मद्य पायीके सम्पर्कसे मद्यपायी रूप शंकित किये जाते हैं । अर्थात् ब्राह्मण यदि शराबोके निकट दूध भी पोवे तो इसने शराब पो है इसप्रकार लोग उसपर शंका करने लग जाते हैं, वैसे हो पार्श्वस्थ के साथ रहा संयमी भी पार्श्वस्थ माना जाता है ।।३५३॥ हे यतिगण ! यह सम्पूर्ण लोक परके दोष को कहने में सदा हो उत्सुफ रहता है, अतः अपवाद का स्थान ऐसा दोष तुम लोग सर्वथा छोड़ देना ।।३५४।। दुर्जन द्वारा दोष किया जानेपर यह सज्जन को प्राप्त होता है अर्थात दोष दुजंन करता है और सज्जन ने यह दोष किया ऐसा लोग समझते हैं । जैसे दोषी उल्लू के द्वारा किया गया दोष निर्दोष हंसपक्षी पर आ पड़ता है ।।३५५।।
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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