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मरण कण्डिका
लज्जां जुगुप्सनं योगी, प्रारम्भं निविशंकताम् । प्रारोहन प्रियधर्मापि क्रमेणेस्थस्ति तन्मयः ।।३४८॥ तेषु संसर्गतः प्रीतिवित्रम्भः परमस्ततः । ततो रतिस्ततो व्यक्त संविग्नोऽप्यस्ति तन्मयः ॥३४६॥ शुभाशुभेन गंधेन, मृत्तिका यदि वास्यते । तवा नान्यगुणरत्र, कथ्यतां पुरुषः कथम् ॥३५०॥
जो मुनि पास्थि मुनिका संग करता है उसे प्रारम्भ में तो लज्जा और जुगुप्सा होती है किन्तु पीछे संगतिके कारण निविशंक होकर क्रम से उस पार्श्वस्थ मनि-रूप हो जाता है जो कि पहले धर्म में प्रगाढ़ प्रोति करने वाला था ॥३४८।।
. विशेषार्थ -प्रथम तो पास्थि आदि भ्रष्ट मुनियों के साथ रहने में लज्जा और जुगुप्सा आतो है, अर्थात् इस मुनिके साथ रहकर मैं अपने व्रत कैसे नष्ट करू! व्रतभंग संसार भ्रमणका कारण है इत्यादि रूप लज्जा आतो है किन्तु पोछे चारित्र मोहका उदय के वश हुआ व्रतभंग कर आरम्भ आदि में प्रवृत्त होता है। यद्यपि यह मुनि पार्श्वस्थादिके सहवासके पूर्व दृढ़ चरित्र वाला था तो भी उक्त संसर्ग से पार्श्वस्थ जैसा बन जाता है।
पार्श्वस्थादिके साथ संगति होनेपर वास्तविक मुनिके भी उनके प्रति प्रेम होता है फिर उस भ्रष्टोंमें विश्वास, उससे रति और अन्त में स्वयं वैसा भ्रष्ट हो जाता है। जो कि पहले संवेग-वैराग्य सम्पन्न था । अर्थात् पार्श्वस्थ का संग करके मनसे भ्रष्ट होकर अन्तमें वचन तथा कायसे भी भ्रष्ट हो जाता है ।।३४९।।
यदि शुभ और अशुभ गंध द्वारा मिट्टी भी बासित की जातो है अर्थात सुगंधित पदार्थ के साथ मिट्टो रखो तो सुगंधित और दुर्गंधित पदार्थ के साथ रखो तो दुर्गन्धित हो जाती है, अन्य वस्तुके गुणोंसे इसप्रकार जड़ में भी परिवर्तन आता है तो परुष-चेतन आत्मामें कैसे नहीं आयेगा ? अवश्य आयेगा ॥३५०।