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सल्लेखनादि अधिकार
यद्यवयवपि
व्रध्यं,
ततस्त्रिधा निराकृत्य यतध्वं
किखिबंधनकारणम् ।
दृढसंयमाः
पार्श्वस्थासन्नसंसक्त कुशीलमृगचारिणः मलिनीक्रियते तश्वरुफलेनेव Te
त्याज्यः,
कषायाकुलचितानां पार्श्वस्थानां भुजंगानामिय
।। ३४५॥
I
॥६४॥
दुरात्मनां । संगश्छिद्रगवेषिणाम् ॥३४७॥
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आर्या संग के समान अन्य जो कोई द्रव्य, क्षेत्र, पदार्थ स्नेह बंधन का एवं कर्म बंधन का कारण है वह सर्व ही मन वचन और कायसे छोड़कर संयममें दृढ़ चित्त मुनियों को सदा प्रयत्नशील रहना चाहिये अर्थात् संयम शीलव्रत आदिको दृढ़ता स्थिरता तभी होगी जब स्नेह मोह और विकार कारक स्त्री आदि का संपर्क सर्वथा छोड़ दिया जायगा ।। ३४५ ।।
पार्श्वस्थ आदि भ्रष्ट मुनियोंके संसर्ग का त्याग -
भ्रष्ट सुनियोंके पांच भेद हैं- पार्श्वस्थ, आसन्न, संसक्त, कुशील और मृगचारी | इनकी संगति सदा हो चारित्र आदि को मलिन करने वाली होती है ॥३४६॥
भावार्थ -इन पांच सुनियों का स्वरूप संक्षेपसे इसप्रकार है - मिथ्यामत जिसे इष्ट लगता है वह पार्श्वस्थ है, चारित्र में सर्वथा शिथिल अवसन या आसन्न है, अयोग्य अशिष्ट कार्य में प्रवृत्त मुनि संसक्त कहलाता है, स्वच्छन्द मनमानो प्रवृत्ति करनेवाला मृगचरित और प्रकट ही है कुशील जिसका ऐसा कुशील होता है । ये बाहर में केवल मुनिवेष में होते हैं किन्तु इनका आचरण मुनि जैसा नहीं होता ।
कषायसे आकुलित चित्तवाले, दुष्ट, जो सदा छिद्र - परदोषको ढूंढते रहते हैं ऐसे पाटस्थ मुनियोंका साथ छोड़ने योग्य है, जैसे सर्पों का साथ छोड़ने योग्य है ।
।।३४७॥