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मरण कण्डिका
नार्या बन्धेन बन्धोऽन्यस्तुल्यो वृत्तच्छिदा यतेः। वज्रलेपः स नो तुल्यो, यो याति सह चर्मणा ॥३४२॥ ब्रह्मव्रतं मुमुक्षूणां, स्त्रीसंसर्गेण निश्चितम् । मंडकः पन्नगेनेय भीषणेन विनाश्यते ॥३४३॥ चौराणामिव सांगत्यं, पुसा सर्वस्व हारिणा ।। योगिना योषितां त्याज्यं, ब्रह्मचर्य प्रपालिना ॥३४४।।
इत्यासिंग त्यागः ।
कफ में पड़ी मक्खी उससे निकल नहीं सकती। वैसे ही आर्या में परिचय करके उसके स्नेह से छूटना शक्य नहीं है ।। ३४१।।
साधु के आचरणका नाश करनेवाला ऐसा आयिका का बंधन संबंध अन्य बंधन के समान नहीं है। जो धर्म के साथ एकफ हो गया है ऐसा वज्रलेप भी उस बंधन की तुलना में कमजोर है । वह बंधन तो टूट सकता है किन्तु आर्या बंधन टूटता नहीं ॥३४२।।
भावार्थ-साधु के लिये आर्यिका का सहवास ऐसा बंधन है उसका वर्णन करने के लिये जगत में दृश्यमान कोई भी बंधन उपमा रूप नहीं हो सकता, चर्म के साथ वत्रलेप भी उसके लिये उपमान नहीं, यह बंधन छूट सकता है परन्तु आपिका का परिचय ऐसा बंधन है कि उससे छुटकारा पाना अशक्य है ।
मुमुक्षु यतियोंका ब्रह्मचर्य स्त्रो संसर्ग द्वारा निश्चित हो विनष्ट हो जाता है, जैसे भोषण सर्प द्वारा मेंढ़क नष्ट होता है ।।३४३।।
अतः साधुओं को ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिये सर्वथा स्त्रियों का सम्पर्क त्याज्य बताया है, जैसे सर्वस्व लूटने वाले चोरोंका सम्पर्क पुरुषों को सदा त्याज्य है । अभिप्राय यह है कि जो अपने ब्रह्मचर्य को सुरक्षित करना चाहते हैं उन साधु पुरुषों को बाल, वृद्ध, युवा, आर्थिका, श्राविका, गृहिणी इत्यादि हर प्रकार की स्त्री समुदाय का संसर्ग त्याग देना चाहिये, उनसे वार्तालाप, निवास, प्रतिक्रमण, चर्चा आदि सर्व क्रिया सर्वथा त्याग करने योग्य है ॥३४४।।