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सल्लेखनादि अधिकार
[१०५ आर्थिका मानसं सद्यो, यतिसंगे विनश्यति । सपिन्हेः समीपे हि, काठिन्यं किं न मुञ्चति ॥३३७॥ स्वयं साधोः स्थिरत्वेऽपि, संसर्गप्राप्तधृष्टता । क्षिप्रं विभावसोः संगे, सा लाक्षेत्र विलोयते ॥३३८॥ अविश्वस्तोंऽगनावर्ग, सर्वत्राप्यप्रमादकः । ब्रह्मचर्य यतिः शक्तो, रक्षितु न परः पुनः ॥३३६।। विमुक्तःसर्वतो जातः, सर्वत्र स्ववशो यतिः । प्रायिकानुचरीमूतो जायतेन्यवशः पुनः ॥३४०।। आयिकावचने योगी, वर्तमानो दुरुत्तरे । शक्तो मोचयितु न स्वयं, श्लेष्ममग्नेवमक्षिका ।।३४१।।
..... ...----- - -- -. . है ? छोड़सा ही है । अर्थात जमा हुआ कठोर घृत अग्निके समीप पिघल जाता है वैसे आर्यिका का मानस साधु के समीप पिघल जाता है, विकृत हो जाता है ।।३३७।।
साधु स्वयं कितना भी स्थिर क्यों न हो किन्तु वह आर्यासंगसे धृष्टता को प्राप्त कर शीघ्र ही चंचल हो उठता है जैसे कि अग्नि के संग से लाख शीघ्र विलीन हो जाती है ।।३३८॥
जो साधु सब प्रकार की महिलायें-बालिका, युवती, वृद्धा, कुरूपा, सुरूपा में अप्रमादो रहता है सदा सावधान रहता है, इनमें विश्वास नहीं करता है, संगति नहीं करता वही अपने ब्रह्मचर्य की रक्षा करता है अन्य नहीं । अर्थात स्त्री समाज में विश्वास करनेवाला कभी भी ब्रह्मचर्य की सुरक्षा नहीं कर सकता ।।३३९।।
__ जो संपूर्ण धन धान्यादि परिग्रहोंसे रहित स्ववश हुआ मुनि है वह आयिका का अनुसरण करके पुनः अन्यके वश अर्थात् स्त्री, धन आदि परिग्रहके वश हो जाता है ।।३४०॥
जिसका पार पाना कठिन है ऐसे आयिकाके बचनको जो साधु मानता है उसकी बात स्वीकार करता है वह उससे अब अपना छुटकारा नहीं पा सकता जैसे