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________________ গ্নিতি সাৰিক্ষাৰ छंद-शालिनीरामाव!मध्यवर्ती मनुष्यः कोडरयेषोऽमेध्यरूपः शिशुर्वा । ब!लिप्तोऽमेध्यमध्यं प्रपत्तो कोरपसारं निवनीय स्वभावं ॥१११७॥ छंद-उपजातिअमेध्यनिर्माणममेध्यपूर्ण निषेवमाणवनिता शरीरम् । यमन्यते स्वं शुचिरस्तबोधेहास्यास्पदं कस्य न ते भवंति ॥१११८।। छंद-उपजातिबोजादयो येन शरीरधर्माश्चित्ते क्रियन्ते बुनिंदनीयाः । निषेव्यते मेध्यमयी न नारी कवाचनामेध्यकटोव तेन ॥१११६॥ --- कर चितन करना चाहिये कि यह चतुर्गतिरूप संसारमें मानव देहरूप वृक्ष है, मार्ग भूला हमा पथिक मैं स्वयं हूं। मृत्यु रूपी व्याघ्र मेरे आगे आया मैं डरसे भागा जा रहा था कि आकस्मिक कष्ट रूप जंगली हाथीने मेरा पीछा किया, मैं दौड़कर मित्ररूपी वक्षको डाल पकड़कर लटक गया उस डालको शुक्लपक्ष कृष्णपक्षरूपी चूहे काट रहे हैं अर्थात समय व्यतीत हो रहा है मृत्यूके क्षण निकट आ रहे हैं । डालीके ऊपरी भागमें गहरूपी छत्ता है और उसमें पंचेन्द्रियके विषय, भोजन, वस्त्र, काम सेवनादि रूप मधु एकत्रित है। मक्खियां विघ्न, रोग, चिता परिवार आदि हैं जो मुझे चारों ओरसे घेरकर काटे जा रहे हैं। ऐसो भयंकर परिस्थिति में गुजरता हुआ भी मैं उस विषय सेवनरूप मधु की बिंदुओंके स्वादमें प्रेम कर रहा हूं। अहो बड़ा आश्चर्य है ! 'धिक् धिक् मां" "किमान्धर्प मतः परम्" । अध्र व वर्णन समाप्त । यह अपवित्र कामो मनुष्य स्त्रीरूपी विष्ठाके मध्यवर्ती हुआ क्रीड़ा करता है अर्थात स्त्रियोंके घिनावने अवयवमें रतिपूर्वक क्रीड़ा करता है, जैसे विष्टासे लिप्त बालक विष्टाके बीच में खेलता है । अहो यह निंदनीय स्वभाव कसे सार हो सकता है ? नहीं हो सकता ॥१११७॥ अशुचिसे निर्मित, अशुचिसे भरा हुआ स्त्रियों के शरीरका, जिन नष्ट बुद्धिवाले पुरुषों द्वारा सेवन किया जाता है और उसके सेवनसे जो अपने आपको पवित्र मानते हैं
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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