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मरणकण्डिका
छ५-उपजाति-- निरीक्षते यो वपुषः स्वभावं वर्षोनियासस्य विनश्वरस्य ।
हे स्वकीयेऽपि विरज्यतेऽसौ दोषास्पदायाः किमु नांगनायाः ॥११२०॥ बलवा नराः शोलेस्तरुणस्तरुणा यतः । आयंते तरुणा वृद्धास्ततः शीलं बुधः स्तुतम् ॥११२१॥ यथा यथा क्योहानिः पुरुषस्य तथा तथा। मंदाः कामरतिक्रीडादर्परूप बलावयः ॥११२२॥
वे पुरुष किसके हँसीके पात्र नहीं होते ? होते ही हैं ।।१११८।। बुद्धिमानों द्वारा निंदनीय ऐसे बोज, निष्पत्ति, क्षेत्र, पाहार आदि शरीरके धर्म जिस पुरुष द्वारा विचारमें लाये जाते हैं, उस पुरुष द्वारा कभी भी अशुचिकी कुटीके समान अशुचिरूप नारी सेवित नहीं होती है ।।१११९॥
जो मलका घर, विनश्वर ऐसे शरीरके स्वभावको जानता देखता है वह पुरुष अपने शरीरसे भी विरक्त रहता है तो दोष के स्थान स्वरूप स्त्रीके शरीरसे क्या विरक्त नहीं होगा ? अवश्य होगा ।।११२०१॥
ब्रह्मचर्य व्रतके परिपालन में पुरुषोंके लिये स्त्रियोंसे वैराग्य होना आवश्यक है, स्त्री वैराग्यके निमित्त तीन हैं, कामदोषका विचार स्त्री दोषका विचार और देहकी अशचित्य । इनका वर्णन क्रमशः यहां तक कर दिया है । अब ब्रह्मचर्य में सहायक जो वृद्ध सेवा है उसको बतला रहे हैं
जिनका शोल अर्थात् ब्रह्मचर्य, क्षमा आदि धर्म बढे हुए हैं वे वद्ध हैं और जिनके उक्त शील तरुण है अर्थात् अल्प है या वृद्धिंगत नहीं है, अथवा है नहीं वे पुरुष तरुण हैं क्योंकि यहां जो शीलवान नर है उसे तो वृद्ध कहा है और जो शीलवान नहीं है वह तरुण है, वयसे तरुण और वृद्धकी बात यहां विवक्षित नहीं है, इसीलिये बुद्धिमानों द्वारा शील ही स्तुत्य होता है ।।११२१।।
जैसे जैसे पुरुषके वयकी हानि होती है, वैसे वैसे उसके कामेच्छा रतिक्रीडा, गर्व, रूप और बल आदि मंद मंद होते हैं ।।११२२।।