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मरणकण्डिका
अपश्यन्नग्रतो मृत्यु यथा कश्चन मदधीः । पतन्मधुकणास्वादे विधत्ते परमां रतिम् ॥१११४।। मत्यन्यानोभितो दुःखसर्प जन्मबिले गतः । लयमानस्तथा मूढो बहुभिविनमूषकः ॥१११५॥ आशामूले दृढं लग्नो विषयास्वादने रतिम् । महतों कुरुते नाशमपश्यन्नग्रतः स्थितः ॥१११६॥
मृत्युको नहीं देखता गिरते हुए मधुके बिंदुओंके स्वादमें परम रति करता है। जैसे यह पुरुष महामूढ माना जाता है वैसे मृत्युरूपी व्याघ्र जिसके आगे खड़ा देख रहा है ऐसा मोही प्राणी-मनुष्य दुःख रूपी सर्प जिसमें हैं ऐसे जन्म रूपी कूपमें लगा हुआ संसार वृक्ष जिसको कि आशारूपी डाल बहुत से विघ्नरूपी चूहों द्वारा काटी जा रही है उसको दृढ़तासे पकड़कर लटका है और उस भयावह स्थिति में आगेको मृत्युको नहीं देखता हुआ स्त्री आदि विषयके स्वाद में बड़ी भारी प्रीति करता है वह पुरुष महामूढ है ।।१११३॥ ॥१११४।।१११५।११११६॥
भावार्थ-यहांपर संसारो प्राणियों के मोहको विडंबनाका आचार्यने दिग्दर्शन किया है। यह एक रूपक है इस रूपकको "संसार वृक्ष" नामसे हम लोग जानते हैं। कोई पथिक सघन वन में रास्ता भूल गया है, इधर उधर मार्गको खोज करता है कि अस्मात सामने व्याघ्र दिखाई देता है यद्यपि भटकते हुए बहुत समय हो जानेसे उसके पैरों में शक्ति नहीं है, भूखा प्यासा है तो भी जान लेकर भागता है पुनः पीछे एक जंगली हाथी लग जाता है बिचारा घबराकर दौड़ते हुए एक अंध कूपके किनारमें स्थित वट वृक्षको जटाको पकड़कर कूपमें लटक जाता है, इधर उक्त हाथी क्रोधित हुआ वृक्षको उखाड़ने का प्रयत्न कर रहा है, जिस जटाको पथिकने पकड़ा है वह दो चूहों द्वारा खाया जा रहा है और अल्पकाल में हो कटकर नीचे गिरेगा, उसी जटाके ऊपरी भागमें मधु-मक्खियोंका छत्ता है. वृक्षके हिलनेसे उसपर बैठो मक्खियां उड़ उड़कर पथिकको बरी तरहसे काटने लगती हैं, किन्तु उस मधु छत्तेसे मधुको कुछ बिंदु पथिकके मखमें पड़ती है, अब वह पथिक इतनी भयावह स्थिति में गुजर रहा है फिर भी मधुके स्वादमें सब कष्ट भयको भूला हुआ है तत्काल होनेवाली मृत्युको भी बह भूल चुका है। यह एक रोमांचकारी बोध कथा है । इस रूपकको हर मुमुक्षुजनोंको अपने पर घटित