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मरणकमिडका विक्रीणाति तपोनघं भोगेन सनिदानकः । माणिक्यमिष काचेन सारासाराविचारकः ।।१३०१।। ससंगस्यानिवृत्तस्य चिनेनाब्रह्मचारिणः । कायेन शीलवाहित्वं व्यर्थ नटयतेरिव ॥१३०२।। प्राकांक्षति महादुःखं निदानी भोगतृष्णया । रोगित्वं प्रतिकाराय कुबुद्धिरिव कश्चन ॥१३०३।। भोगार्थ बहते साधुनिदानित्वेन संयमम् । स्कंधेनैव कुधीगुयोमासनाय महाशिलाम् ॥१३०४।।
निदान करने वाला मुनि अपने अमूल्य तपको भोग द्वारा बेच डालता हैभोगका तुच्छ मूल्य लेकर अमूल्य महा कीमतो तपको बेचता है । जैसे कि सार क्या है असार क्या इस बातका जिसे विचार नहीं है वह पुरुष माणिक्य रत्न के बदले काचको खरीदता है अर्थात् रत्न देकर उसके बदले में (मूल्यमें) काचको ले आता है ।।१३०१।।
जिसका चित्त गो दिशामा है मनसे अब्रह्मचारी है जिसके परिग्रहसे निवृत्त रूप परिणाम नहीं है और केवल शरीर द्वारा शीलपालन करता है उसका वह शील पालन व्यर्थ है, जैसे नटयति नकली या भ्रष्ट मुनिका केवल बाह्य या शरीरसे प्रतादिका पालन व्यर्थ है । अथवा नटयति का अर्थ यतिका वेष धारण करनेवाला नट पूरुष है वह जैसे बाहरसे वेषमात्रसे मुनि है अंतरंगमें अब्रह्म आदि रूपहो भाव है । वैसे निदान करने वाला मुनि है ।।१३०२।।
___ निदान करनेवाला व्यक्ति भोगकी लालसासे महादुःखकी कांक्षा करता है, जैसे कोई कूवृद्धि पुरुष प्रतीकार औषधि सेवनकी लालसासे रोगी होना चाहता है। वैसा निदान करनेवाला है, ऐसा समझना चाहिये ।। १३०३।।
जैसे खोटी बुद्धिवाला मुर्ख, मैं इसपर बैठ जाऊंगा इस वांच्छासे बडो भारी शिला-पत्थरको कंधेपर रखकर ढोता फिरता है, वैसे कोई साधु निदान द्वारा भोग प्राप्तिके लिये संयमका भार ढोता है ।।१३०४।।
भावार्थ-शिलापर बैठनेका सुख अति तुच्छ है और उसके लिये शिला कंधे पर रखकर ढोना महादुःखदायी है ठीक इसीप्रकार निदान करके भोग प्राप्त करना