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अनुशिष्टि महाधिकार यत्सखं भोगजं जंतोयंददुःखं भोगनाशनम् । भोगनाशोस्थिर दुःशं दुखःधिकार मासा ।। ३६० ।। खुवादिपोस्तेि वेहे समासक्तः कथं सुखी । दुःखस्यास्ति प्रतीकारोहस्वीकारोऽथवा सुखम् ॥१३०६।। अनपेक्ष्य यथा सौख्यं न दुःखं बाधते नरम् । अनपेक्ष्य तथा दुःखं न सुखं विद्यते जने ।।१३०७।। सेवमानो यथा तिन कुष्ठी लभते शमम । भुजानो न तथा भोगं संतोष प्रतिपद्यते ।।१३०॥
अत्यल्प सुखरूप है और उसके लिये संयम पालन करना भाररूप है । संयम तो मोक्षरूप महाफल दायक था उसे तुच्छ भोगमें गमा दिया।
__इस जीवको भोगसे होनेवाला जो सुख है और भोग के नष्ट हो जानेपर जो दुःख होता है, इन दोनोंको यदि मापा जाय या इनकी तुलना की जाय तो भोगनाश से उत्पन्न दुःख उक्त सुख से अधिकतम पाया जायेगा । अर्थात् भोगज सुख अति अल्प है और भोगके नष्ट होनेपर जो दुःख होता है वह बहुत अधिक है ।।१३०५।।
कदाचित् किसी जीवको इच्छानुसार भोग मिल भी जाय तो बिनाशीक शरीरमें क्या सुख होगा ऐसा बताते हैं
यह शरीर भूख प्यास बेदना आदिसे सदा पीड़ित रहता है ऐसे शरीरमें रहनेवाला जोब किसप्रकार सुखी हो सकता है ? संसारी प्राणियों का सुख तो दुःखोंका प्रतीकार करना रूप ही है अथवा दुःखोंको कम करना रूप है ।।१३०६।।।
जैसे सुखकी अपेक्षाके बिना दुःख पुरुषको बाधित नहीं करता वैसे दुःखकी अपेक्षाके बिना लोक में सुख नहीं रहता है, अर्थात् संसारमें सुख और दुःख दोनों विद्यमान हैं ।।१३०७॥
जैसे कोई कुष्ठ रोगो अग्निका सेवन करके शांतिको प्राप्त नहीं कर सकता, वैसे भोग भोगता हआ जीव संतोषको प्राप्त नहीं कर सकता । अग्निके तापसे तो कृष्ठ बढ़ेगा हो, वैसे भोग सेवनसे भोगकी इच्छा बढ़ेगी उससे संतोष नहीं होगा। संतोष तो भोगके त्यागसे होगा] ।।१३०८।।