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मरणकण्डिका मैथन सेवमानोऽङ्गी सौख्यं दुःखेऽपि मन्यते । शितैः कडूयमानो वा कच्छ कररहै: कुधीः ॥१३०६।। सेवमानो नरो नारों दुःखवां सुखदां कुधीः। मन्यते मधरा बह्वीं कृमि?षातकोमिव ॥१३१०॥ मंपद्यते सुखं भोगे सेव्यमाने न किंचन । सारो नोऽविष्यमाणोऽपि रंभास्तमे विलोक्यते ॥१३११॥ विश्वस्ता यः प्रतायन्ते विमुच्यते निषेवकाः ।
प्रवद्धकाः प्रपीडच ते कस्तै गः समो रिपुः ॥१३१२॥ __ मैथुन सेवन करता हुआ पुरुष दुःख होनेपर भी उसमें सुख मानता है, जैसे कोई कुबुद्धि खाजको पर्ने नखोंसे खुजाता हुआ दाहरूप दुःख होनेपर भी उसमें सुख मानता है ।।१३०६।।
___खोटी बुद्धिवाला पुरुष दुःखदायक ऐसी नारोका सेवन करता हुआ उसे सुखदायक मानता है, जैसेकि कोई कीट या लट घोषातकी नामके बड़े कड़वे फलको खाते हुए उसे मीठी मान लेता है ।।१३१०।।
सत्य रूपसे देखा जाय तो भोगोंका सेवन करने में किंचित् भी सुख प्राप्त नहीं होता है जैसे कि केले के स्तंभ-खंबेमें खोजनेपर भो कुछ सार दिखायी नहीं देता । अर्थात् केलेके स्तंभ सदृश भोग निःसार है ।।१३११॥
___ जिन भोगों द्वारा विश्वस्त जन ठगाये जाते हैं, सेवा करने वाले छोड़े जाते हैं तथा वृद्धि करने वाले पीड़ित किये जाते हैं, उन भोगोंके समान क्या कोई अन्य शत्रु है ? नहीं है।
भाव यह है कि जो अपने पर विश्वास करता है अथवा जो विश्वास पात्र पुरुष उसको कोई भी नहीं ठगता । सेवा करने वालों को कोई छोड़ता नहीं तथा धन सन्मान आदिको वृद्धि करने वाले पुरुषोंको दुःख नहीं देता है किन्तु ये भोग ऐसे विचित्र हैं कि विश्वस्तको भी ठग लेते हैं अर्थात् जो भोगों पर विश्वास करता है वह ठगा जाता है-कुगतिमें जाता है । अपनो सेवा करने वालेको भी ये भोग छोड़ देते हैं अर्थात योगी पुरुषके योग एक दिन अवश्य छूट जाते हैं-नष्ट होते हैं । भोग वृद्धिकारकको भी पीड़ा देते हैं अर्थात् जो पुरुष भोगोंको बढ़ाता है वह कुगतिमें पीड़ित होता है । इसप्रकार इस जीवका भोग ही महाशत्रु है ।।१३१२।।