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अनुशिष्टि महाधिकार
छंद-उपजाति
निषेव्यमाणो वनिता कलेवरं स्वदेहखेदेन सुखायते जनः ।
श्वा व्यश्वानो रसमस्थि नोरसं स्वतालुरक्ते मनुते सुखं यथा ।। १३१३ ।।
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नग्नो बाल इवास्वस्थः स्थनन्नथ्य क्तजल्पनः । प्रवासाकुलो जनो नार्यो कीदृशीं श्रयते रतिम् ।। १३१४।।
आरंत भराक्रान्तां दीनामुष्ट्रोमिषाकुलाम् । कि सुखं लभते मूढः सेवमानो नितंबिनीम् ॥१३१५॥ छंद-उपजाति
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fret रूपाः कुटिल स्वभावा भोगा भुजंगा इव रंध्र संस्थाः । ये स्मर्यमाणा जनयन्ति सुःखं ते सेविताः कस्य भवन्ति शान्तये ।। १३१६ ।।
यह मोही मनुष्य स्त्रो शरीरका सेवन करता हुआ अपने शरीरके स्वेद द्वारा सुखानुभव करता है-सुख हुआ ऐसा मानता है, जैसे कुत्ता नीरस हड्डी को चबाता हुआ अपने तालुसे निकले हुए रक्तमें ही यह रस है ऐसी कल्पना कर सुख मानता है ।। १३१३।।
नारीके साथ भोग करनेवाला पुरुष, बालकके समान नग्न अस्वस्थ शब्द करता हुआ, अव्यक्त बोलता हुआ जोर-जोर से श्वास लेनेके कारण प्राकुलित किसप्रकार की रतिको पाता है ? बड़ा आश्चर्य है ।। १३१४।।
शब्द करती हुई भारसे आक्रान्त दीन ऐसी ऊँटिनीके समान व्याकुल हुईं स्त्री का सेवन करता हुआ मूढ़ पुरुष क्या सूख पाता है ।। १३१५ । ।
स्त्री आदि संबंधी भोग सपंके समान अतिशय भयंकर हैं कुटिल स्वभाव वाले हैं अर्थात् सर्प भयावह डरावना होता है और कुटिल - टेढ़ीचाल चलता है भोग परलोक में दुःखकारक होने से भयावह हैं कषाय मायाचार आदिसे युक्त होने से कुटिल स्वभाव है, सर्प रंध्र संस्था - बिल में रहते हैं भोग योनिरूपी बिलमें रहते हैं । जो स्मरणमें आनेपर भी दुःख उत्पन्न करते हैं वे भोग सेवित किये गये किसके शांति के लिये हो सकते हैं ? किसी के भी नहीं ।। १३१६॥