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________________ ३८४ । मरणकण्डिका छंद-उपजातिप्रवर्य सौख्यं वितरन्ति दुःखं विश्वासमुत्पाद्य व वंचति । ये पोउयन्ते परिचर्यमारणास्ते संति भोगा: परमा द्विषन्तः ॥१३१७॥ कामिभिर्भोग सेवायामसत्यं दृश्यते सुखम् । कुरंगभृगतृष्णायां पानीय तृषितरिय ॥१३१८।। कुथितस्त्रोतनुस्पर्श नष्टबुद्धिः सुखायते । अवगुह्य शवं व्याघ्रः श्मशाने कि न तृप्यति ।।१३१६।। मध्यदिनार्कतप्तस्य यावच्छायाव्यतिक्रमे । वेगतो धावतः सौख्यं तावद्धोगनिषेधणे ॥१३२०॥ __ जो सखको दिखाकर दुःख देते हैं, विश्वासको उत्पन्न कराके ठग लेते हैं, परिचर्या किये जानेपर पीड़ा पहुंचाते हैं वे भोग सचमुच में बड़े भारी शत्र ही हैं ऐसा समझना चाहिये ।।१३१७।। भावार्थ- बैरी या शत्रु का स्वभाव होता है कि वे सुख को देंगे ऐसा दिखाते हैं किन्तु देते दुःख ही हैं पहले विश्वास दिलाते हैं कि हम तुम्हारे हितचिंतक हैं किन्तु करते उगाई हो हैं । परिचर्या या परिचय में आनेपर पीड़ा-कष्टकारी होती है, ठीक इसीप्रकार भोगोंका स्वभाव होता है भोग भोगते समय सुखाभास होता है किन्तु रहता वह दुःख हो है । भोग मुझे सुखकारी होगा ऐसा पहले विश्वास होता है किन्तु भोगने पर सुखकारी नहीं होते अतः उससे मानव ठगे गये ही समझना चाहिये । सेवित होनेपर पीड़ादायक है अतः भोग बिलकुल शत्रु ही है । ___कामी पुरुषों द्वारा भोग भोगनेपर सुख दिखाई देता है किन्तु वह वास्तविक सुख नहीं है । जैसे प्यासे हिरणों द्वारा मृगतृष्णामें पानी दिखाई देता है किन्तु वह वास्तविक जल नहीं है ॥१३१८।।। श्मशान में व्याघ्न प्रेतका भक्षणकर क्या तृप्तिका अनुभव नहीं करता ? करता हो है । वैसे जिसकी बुद्धि नष्ट हुई है ऐसा कामी पुरुष सड़े हुए के समान स्त्रोके कलेवरके स्पर्श होनेपर सुखानुभव-मेरेको सुख हो रहा है ऐसा समझता है ।।१३१६।। जैसे कोई पथिक हैं और दोपहर के सूर्य द्वारा संतप्त हुआ वेगसे दौड़ता जा रहा है उसको मार्गमें वृक्षको छाया बीच-बीचमें पाती है उसको लांघने में किचित् धूप
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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